डॉ. श्रीनाथ सहाय। Danger Bell : कश्मीर में पांच अक्टूबर के बाद से पांच प्रवासियों की हत्या हो चुकी है। जिसमें बिहार के चार मजदूर-रेहड़ी वाले हैं और उत्तर प्रदेश के एक मुस्लिम कारपेंटर भी शामिल है। इससे पहले एक स्थानीय सिख और हिंदू शिक्षक की हत्या कर दी गई थी। मशहूर दवा कारोबारी कश्मीरी पंडित मक्खनलाल बिंद्रू को भी आतंकियों ने मार दिया था।
लगातार हो रहे टारगेट किलिंग से वहां बाहरी लोगों और प्रवासी मजदूरों में डर का माहौल है। ऐसे में भारी संख्या में जम्मू-कश्मीर में काम कर रहे प्रवासी मजदूरों के राज्य से पलायन की खबरें आ रही हैं। हालांकि सामान्य तौर पर सैंकड़ों मजदूर सर्दियां शुरु होने और दीपावली के त्योहार पर अपने घर लौटते हैं लेकिन राज्य में हिंसा बढ़ जाने से वे पहले ही वहां से निकलने की कोशिश में है।
जम्मू-कश्मीर में चल रहे कई विकास परियोजनाओं में करीब 90 फीसदी प्रवासी मजदूर निर्माण कार्यों में लगे हुए हैं। सिर्फ कश्मीर घाटी में ही पांच लाख प्रवासी मजदूर हैं। अनुमान के मुताबिक, जम्मू-कश्मीर में बाहर से तीन-से चार लाख मजदूर हर साल काम के लिए घाटी जाते हैं। उनमें से अधिकांश सर्दियों की शुरुआत से पहले चले जाते हैं, जबकि कुछ साल भर वहीं रह जाते हैं। बताया जाता है कि लगभग राज्य के हर जिले में बिहार और यूपी से आए मजदूर हैं।
एक स्थानीय मीडिया के अनुसार सेब के मौसम के कारण भी राज्य बाहरी मजदूरों से अटा पड़ा है। लगभग 41,000 मजदूर, जिनमें से अधिकांश प्रवासी हैं, वे संगठित और असंगठित क्षेत्रों के लगभग 4,800 औद्योगिक इकाइयों में काम कर रहे हैं। लॉकडॉउन में लगभग 56 हजार मजदूर वहीं फंस गए थे लेकिन उस मुश्किल वक्त में भी स्थानीय लोगों ने उनकी मदद की थी। इसलिए कश्मीरी पंडितों, गैर-स्थानीय मजदूरों के लिए व्यापक सुरक्षा उपाय करने की जरूरत है, क्योंकि यदि वे इस तरह घाटी छोड़ कर जाने लगे तो अनुच्छेद 370 खत्म करके सरकार ने जो सकारात्मक माहौल बनाने की कोशिश की थी उसका संदेश अच्छा नहीं जाएगा।
घाटी में कुछ स्थानों को तो ‘प्रवासियों का घर’ कहा जाता है। जम्मू-कश्मीर का ज्यादातर श्रम इन्हीं मजदूरों के सहारे है। सेब के बागीचों, खेतों, कोल्ड स्टोरेज से लेकर निर्माण-कार्यों और फर्नीचर के उद्योग में वे ही श्रम की बुनियाद हैं। ईंट, सीमेंट ढोने से लेकर सेब की पेटियों की पैकिंग और लोडिंग प्रवासी मजदूर ही करते रहे हैं। वे कश्मीर ही नहीं, देश की मौजूदा और भावी अर्थव्यवस्था को आकार और आधार देने वाले हैं। उन्हें गोलियों से मत मारो! उन्हें तुम्हारे जेहाद से कोई सरोकार नहीं है!! वे किसी के भी दुश्मन नहीं हैं!
उन्हें तो गले से लगाओ, नहीं तो पूरा कश्मीर थम जाएगा। अर्थव्यवस्था स्थिर और विकासहीन हो जाएगी। आर्थिक गतिविधियां ठिठक जाएंगी। यदि पलायन के बाद मजदूर लौट कर घाटी में नहीं आए, तो समूचे जम्मू-कश्मीर की आर्थिक हालत क्या होगी, कल्पना भी नहीं की जा सकती। मजदूर का काम मजदूर ही कर सकता है, कोई आतंकी, अलगाववादी, अमीर या उद्योगपति नहीं कर सकता। अंतत: देश की अर्थव्यवस्था को लाखों-करोड़ों डॉलर का नुकसान झेलना पड़ेगा।
कोरोना-काल में लॉकडाउन की तालाबंदी के बाद बड़े उद्योग इन प्रवासी मजदूरों की कमी झेल चुके हैं। इन्हें हिंदू-मुसलमान के दायरे में रखकर मत मारो। कुछ भी हासिल नहीं होगा। कश्मीर पर जेहादियों का कब्जा नहीं होगा। पाकिस्तान तुम्हें बरगला रहा है। मुट्ठी भर पैसों की खातिर अर्थव्यवस्था को नीलाम मत करो। मजदूरों को बाद में ज्यादा भुगतान के लालच (Danger Bell) देने पड़ेंगे। लॉकडाउन के बाद व्यापारियों को यही करना पड़ा था। मजदूरों को अग्रिम तौर पर पैसा देना पड़ा। उन्हें विमान के टिकट भेजे गए। उसके बावजूद पूरा श्रम लौट कर नहीं आया। 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश में 45.6 करोड़ प्रवासी मजदूर हैं।
तब की आबादी का 40 फीसदी से भी ज्यादा हिस्सा! अब 2021 में उनकी संख्या बढ़ चुकी होगी। संसद के पटल पर रखी जाने वाली ‘आर्थिक सर्वेक्षण’ की रपटों में भी अंतरराज्यीय प्रवासी मजदूरों के महत्त्व को आंका जाता रहा है। देश के 10 राज्यों-हरियाणा, झारखंड, मप्र, आंध्र, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, गुजरात और कर्नाटक आदि-में स्थानीय नागरिकों के, निजी क्षेत्र की नौकरियों में भी, आरक्षण के प्रस्ताव पारित किए गए। कानून भी बने, लेकिन जब राष्ट्रीय लॉकडाउन उठाया गया, तो फैक्ट्रियों में मजदूर नहीं थे। सरकारों और कंपनियों ने उन्हें मनाकर वापस लाने की कोशिशें कीं। आधी-अधूरी कामयाबी ही हासिल हुई।
राज्य में शांति बहाल करने के प्रयासों के तहत अलगाववादियों सहित सभी पक्षों से बातचीत के लिए 2010 में यूपीए सरकार में वार्ताकार रहीं प्रो राधा कुमार मानती हैं कि कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटने के बाद और राज्य के बंटने के बाद इसी बात का डर सबसे ज्यादा सता रहा था। जिस तरह से केंद्र सरकार ने आर्टिकल 370 हटाने के बाद राज्य में विकास परियोजनाओं को शुरु किया है उससे आतंकी संगठनों में गुस्सा है। इन विकास परियोजनाओं में काम करने वाले बहुत से प्रवासी मजदूर और तकनीशियन हैं। इससे कुछ लोगों में असुरक्षा की भावना घर गई है, क्योंकि यह प्रवासी मजदूर जम्मू-कश्मीर की अर्थव्यवस्था को बढ़ाने और विकास में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।
शहरी और कृषि के कामों में हाड़तोड़ मेहनत और वह भी सस्ती मजदूरी पर ये प्रवासी मजदूर ही करते रहे हैं। वक्त, मेहनत और लगातार अनुभव ने उन्हें हुनरमंद भी बना दिया है। उनके विकल्प कहां से मिलेंगे? रक्षा विशेषज्ञों के अनुसार, आतंकी सुरक्षाबलों से सामना नहीं कर सकते तो बेगुनाहों और निहत्थे लोगों को निशाना बना रहे हैं, क्योंकि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटने के बाद से यह संदेश गया है कि अब सब कुछ केंद्र से सीधा कंट्रोल हो रहा है। ऐसे में मजदूरों और निहत्थे लोगों को निशान बनाकर वे देश के दूसरे हिस्से के लोगों को यहां आने से रोकने के लिए दबाव बनाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं।
आतंकी संगठन जानते हैं कि सभी मजदूरों और बाहरी लोगों को सुरक्षा मुहैया (Danger Bell) कराना आसान नहीं है। इसलिए सुरक्षाबलों को उन्हें निशाना बनाने वाला पूरे नेटवर्क को बेअसर करना होगा। वे मानते हैं कि हमारी एक गलती यह भी रही कि हमने यह मान लिया था कि अनच्छेद 370 हटने के बाद से कश्मीर में सब ठीक हो गया है, यह मसला अब ठंडा पड़ गया है। लेकिन उन्होंने 2009 में कश्मीरी पंडितों के साथ जो किया वे अब प्रवासी मजदूरों के साथ ऐसा कर रहे हैं, ताकि वे राज्य छोडऩे के लिए मजबूर हो जाएं।
कुछ समय से हालात ठीक हुए थे, लोगों ने जमीन खरीदना शुरु कर दिया, निवेश आने लगा, वहां पर्यटक पहुंचने लगे और यातायात खुल गया तो वे डर गए कि यदि इस तरह कश्मीर में हालात सामान्य होने लगे तो उन्हें कुछ स्थानीय लोगों और अलगाववादियों का समर्थन मिलना मुश्किल हो सकता है। इसलिए वे आतंक फैलाकर लोगों को कश्मीर आने से रोकने की कोशिश कर रहे हैं।