बद्री नारायण। Corona Year : कहते हैं, समय बड़ा बलवान होता है और वह भी तब, जब हमारा समय एक ऐसे विषाणु द्वारा रचा जा रहा हो, जिसने सत्ता, शक्ति और समाज, सबको अपनी छाया में रहने के लिए बेबस कर दिया है। सबने सोचा था कि यह साल उत्तर-कोरोना वर्ष कहलाएगा, पर कोरोना हमारे बीच अब भी अतीत और वर्तमान, दोनों रूपों में मौजूद है और हमारी सामाजिकता को जोड़-तोड़ रहा है।
बीत रहा यह वर्ष भारतीय समाज के लिए काल के कराल से गुजरने का वर्ष रहा है। विषाणु द्वारा रचित मृत्यु के प्रलय नाद को सुन-सुनकर रोने-बिलखने और अपनों को खोकर, उन्हें याद करके, स्मृतियों द्वारा उस खोये को फिर से पाने का भी यह वर्ष रहा है। कभी पूर्ण, कभी अद्धर्, तो कभी शर्तगत लॉकडाउन की स्थितियों से हम लगातार गुजरे हैं। इसने सामूहिकता एवं सार्वजनिकता से रचित हमारे त्योहारगत उत्साह को कम कर दिया है।
पर्व-त्योहार, पूजा-पाठ, शादी-ब्याह की संस्कृति कमजोर पड़ी है और उनसे जनित खुशियां जैसे खो गई हैं। आपसी मेल-जोल, साक्षात संवाद, पर्व-त्योहार, शादी-ब्याह से उत्पन्न सामाजिकता ही किसी भी समाज की आत्मशक्ति रचती है। इस वर्ष सामूहिकता से उत्पन्न भारतीय समाज की आत्म-शक्ति कमजोर हुई है। भारतीय समाज में दुराव, अकेलापन बढ़ा है, जिसके कारण आत्महत्या की प्रवृत्ति भी बढ़ी है।
एक-दूसरे के साथ खड़ा होने की जगह अपने को बचाने की चिंता में हम अपने लोगों से भी बचने लगे हैं। अभी थोड़े दिन ही पहले हम सब एक-दूसरे के लिए संभावित संक्रामक देह में तब्दील हो गए थे। तब कोरोना से पीडि़त लोगों की सेवा करने वाला, मृत रोगियों की लाश को ले जाने वाला, उनका दाह-संस्कार करने वाला भी नहीं मिल रहा था। इस कोरोना जनित भय ने भारतीय जीवन को काफी कुछ बदल दिया है।
इसने हमारी यात्रा एवं पर्यटन संस्कृति से उत्पन्न सामूहिकता को भी काफी कमजोर किया है। आज रेल सेवा, बस सेवा एवं अन्य सार्वजनिक यातायात के वाहनों की तुलना में लोग निजी वाहनों से सफर करना ज्यादा पसंद करने लगे हैं। यह ठीक है कि बसों एवं ट्रेनों की सेवाएं अभी पूरी तरह से बहाल भी नहीं हो पाई हैं।
इस बीत रहे साल ने हममें एक विचित्र सामाजिक एहसास को जन्म दिया है। उसने एक ही साथ धन की अप्रासंगिकता व पैसे का महत्व, दोनों को स्थापित किया है। महामारी जब अपनी दूसरी लहर में मृत्यु का डंका बजा रही थी, तब धन एवं सत्ता की शक्ति कई जगह बेमानी हो गई थी। वहीं कोरोना जनित समय में अपने देह की सुरक्षा में जिस आत्मकेंद्रीयता का आक्रामक विस्तार हुआ है, उसे पालने में पैसे का महत्व बढ़ा है। महंगी गाडिय़ां एवं अपने लिए बेहतर निजी चिकित्सा शंकुल बनाने की चाह बढ़ी है।
सरकारी चिकित्सालयों में चिकित्सा पर लोगों का विश्वास तो पहले ही कम था, अब निजी अस्पतालों से होते हुए घर में ही ज्यादा शुल्क चुकाकर डॉक्टर बुलाकर चिकित्सा कराने की चाह समाज के संपत्तिशाली व उच्च मध्य वर्ग में बढ़ी है। सुख भोग की चाह और सबसे अलग रहकर देह की सुरक्षा की चिंताएं, साथ-साथ विकसित हो रही हैं।
गांवों में भी स्वार्थ की भावना सामने आई है। शहर से लौटे परिजनों (Corona Year) को भी परायेपन का एहसास हुआ है। गांवों से जिन लोगों का जुड़ाव टूट गया था, गांवों ने उनका स्वागत नहीं किया। जो लोग अपने गांव से ठीक से जुड़े हुए थे, उनका गांव से रिश्ता और प्रगाढ़ हुआ है। यूं तो भारतीय सामाजिक संस्कृति में लालच की गहरी आलोचना मिलती रही है। अगर विभिन्न भारतीय भाषाओं की लोक कथाओं को देखें, तो उनमें लालच की तीखी आलोचना का बोध दिखाई पड़ेगा।
संत साहित्य, कबीर, रविदास की वाणी में लोभ-लालच को तार-तार कर दिया गया है, किंतु इधर लालच और भ्रष्टाचार के प्रति एक मूक स्वीकारोक्ति का भाव दिखाई पड़ता है। अनुशासनहीनता भी बढ़ी है। शिक्षा संस्थानों के लगातार बंद रहने से समाज और परिवार के अनुशासन में कमी आई है। दिनचर्या से लेकर विचार तक, बच्चों में हुए बदलाव हमारे लिए चुनौती हैं। भारतीय समाज में इस बीत रहे वर्ष में हिंसा-भाव का बढऩा भी हम देख रहे हैं।
यह हिंसा भाव सोशल साइट्स पर सक्रिय हमारे अनेक युवाओं की भाषा में साफ देखा जा सकता है। यह ठीक है कि सांप्रदायिक टकराव कुछ रुके हैं, लेकिन सांप्रदायिक व जातीय विद्वेष जीवित हैं। वैसे विपदा काल के जीवन में बहुत सी अच्छी चीजें भी सामने आई हैं। समाज में सेवाभाव भी देखने को मिला है। सेवा की जरूरत को समाज के एक बड़े हिस्से में ठीक से समझा गया है। मानवीय भावों के उभार के अनेक उदाहरण समाज में देखने को मिले हैं।
बेहतर सेवाभावी संस्थाओं व संस्थानों ने खुद को पहले से ज्यादा मजबूत किया है। साल 2021 में हमने यह सीखा है कि अगर अच्छी संस्थाओं को हम आगे बढ़कर काम करने दें, तो बुरी या लूट-खसोट का इरादा रखने वाली संस्थाओं की विदाई आसान होगी। एक और अच्छी बात यह हुई कि समाज इस वर्ष बहुत ज्यादा ‘डिजिटलाइज’ हुआ है। आपदा में अवसर के रूप में हमने जीवन जीने के लिए ई-कॉमर्स तथा अन्य वेब माध्यमों को विकसित कर लिया है।
दूर बैठे किसी जरूरतमंद तक धन या कोई सामग्री पहुंचाना आज बहुत आसान है। समाज का एक अलग ही प्रौद्योगिकी आधारित स्वरूप इस वर्ष सशक्त हुआ है, बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक, हर उम्र के लोगों के लिए सहूलियतें बढ़ी हैं। नकदी के प्रति समाज का मोह नहीं घटा है, लेकिन इसका उपयोग जरूर घट गया है।
लगता है, आने वाला साल सामाजिक स्तर पर अनेक चुनौतियों से भरा होगा। कोरोना अब रूप बदलकर आ रहा है। मुझे तो लग रहा है, हम आगे के कुछ और वर्षों तक शायद ‘जैविक देह मात्र’ केंद्रित समाज बनकर रहने को बाध्य रहेंगे। हमें लालच, पैसे के महत्व, गरीबी के विस्तार, विद्वेषपरक भावनाओं से जूझना ही होगा। इस स्थिति में शिक्षा एवं सामाजिक संस्कृति, दोनों ही संकट ग्रस्त रहेगी।
आशा बस यही है कि समाज आपातकाल में भी अपने भीतर खुद को पुनर्जीवित करने एवं शक्तिवान बनाने के तत्व विकसित करता रहे। मानवता, नैतिकता और संवेदना को बचाए रखना जरूरी है। हमें उम्मीद का दामन (Corona Year) नहीं छोडऩा चाहिए, तभी हम बुरे दिनों का अंत करने में समर्थ होंगे।