प्रसंगवश- दिल्ली के पैकेज पर भारी पड़ता छत्तीसगढ़ी न्याय |

प्रसंगवश- दिल्ली के पैकेज पर भारी पड़ता छत्तीसगढ़ी न्याय

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यशवंत धोटे

महज पौने तीन करोड़ की आबादी वाले छत्तीसगढ़ राज्य में किसानों,मजदूरों के खाते में सीधे पैसे डालकर राजीव गांधी न्याय योजना का आगाज हो गया । 5700 करोड़ रुपए के घोषित न्याय में से 1500 करोड़ की पहली किश्त काश्तकारों के खाते में जा चुकी हैं। अब किसान, मजदूर दिल्ली के पेकेज की तुलना छत्तीसगढ़ी न्याय से करने लगे हैं। आपदा को अवसर में बदलने की घोषणा के साथ प्रधानमंत्री ने देश की 135 करोड़ आबादी के लिए 20 लाख करोड़ का दस्तावेजी पैकेज जब घोषित किया तो उसे आम लोगों को समझाने में पांच दिन लगे और धरातल पर उतरने का समय अभी निश्चित नहीं हैं। केन्द्र सरकार तीन किश्तों में प्रति किसान सालाना 6 हजार रुपए दे रही है और  वह भी इस पेकेज में शामिल है। छत्तीसगढ़ी न्याय का फलसफा यह है कि इसमें काश्तकार को 14 क्विन्टल प्रति एकड़ धान की औसत पैदावार के हिसाब से दिया जाने वाला न्याय 9590 हैं। अब इसे किसान सीधी और सरल भाषा में ऐसे समझ सकता है। केन्द्र ने धान का समर्थन मूल्य 1835 रुपए तय किया है और राज्य सरकार प्रति क्विंटल 25 सौ रुपए दे रही है । अब यह 685 रुपए की अंतर राशि को एक एकड़ के औसत उत्पादन से गुणा किया जाय तो प्रति एकड़ 9590 रुपए होती हैं। इस लिहाज से काश्तकार को रकबे के मुताबिक मिलने वाली राहत केन्द्र के पैकेज को मुंह चिढ़ाती है । अब इसे ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिहाज से देखा जाय तो बार बार राज्य के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल यह क्यों कहते हैं कि पौने तीन करोड़ की आबादी वाले इस राज्य की ग्रामीण अर्थव्यवस्था फल फूल रही है। दरअसल वे खुद ही काश्तकार हैं तो उन्हें या दीगर काश्तकारों को इसे समझने के लिए किसी राकेट साइंस की जरूरत नहीं है। किसानों ,मजदूरों, ग्रामीणों के हाथ में जाने वाला पैसा ही तो बाजार में आ रहा है, जिससे बाजार का दूसरा सेगमेन्ट फल फूल रहा है। फर्क सिर्फ इतना हैं कि देश का 70 और छत्तीसगढ़ का 85 फीसदी  ग्रामीण तबका व्यापार के उस पाखंड को नहीं समझ पा रहा है, जिसके चलते गांव का गरीब और गरीब होता जा रहा है और शेयर बाजार के कृत्रिम उतार चढ़ाव का पाखंड अमीर -गरीब की खाई को चौड़ा कर रहा है। इस खाई को पाटने के लिहाज से राजीव गांधी न्याय योजना के मूल को समझने के लिए यह काफी है कि मनरेगा जैसी योजनाओं ने गांवों में पैसे का फ्लो बढ़ाया वही पैसा बाजार में आया। ग्रामीण अर्थतंत्र मजबूत होने लगा तो कारपोरेट सेक्टर को रास नहीं आया और इसे कमजोर करने के प्रयास हुए लेकिन कोरोना की महामारी ने इसकी महत्ता को साबित किया। कमोबेश कुछ ऐसी ही राजीव गांधी न्याय योजना भी है। जिस दिन कारपोरेट को लगेगा कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था सबल हो रही है, इसे नेस्तनाबूत करने नए पाखंड के साथ वे  पुन: अवतरित होगें। इसके लिए राज्य सरकार को अपने स्तर पर सतर्क रहने की जरूरत है। 

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