आचार्य चाणक्य (Chanakya) का कथन है कि जिस प्रकार गुदा को सैकड़ों बार धोने के बाद भी एक श्रेष्ठ इन्द्रिय नहीं बनाया जा सकता, ठीक उसी प्रकार दुर्जन व्यक्ति को भी लाख प्रयास सुधारने के लिए किये जायें, वह नहीं सुधार सकता, क्योंकि ऐसी कोई चीज नहीं जिससे उसे सुधारा जा सके।
Chanakya: शत्रु से या किसी अन्य से द्वेष करने पर धन का नाश होता है। राजा से द्वेष करने से स्वयं का नाश हो सकता है और ब्राह्मण से द्वेष करने से कुल का नाश हो जाता है। अतः द्वेष किसी भी मानव के लिए घातक है। यदि व्यक्ति अपनी ही आत्मा से द्वेष करने लगा तो उसकी मृत्यु भी सम्भव है। ब्राह्मण से द्वेष रखने वाले व्यक्ति का तो वंश का वंश ही समाप्त हो सकता है।
Chanakya: किसी भी व्यक्ति के जीवन के लिए अनुशासन आवश्यक अंग है। विद्वान ब्राह्मण रूपी वृक्ष की जड़ अनुशासन है, वेद उनकी शाखाएं हैं, धर्म-कर्म अनुष्ठान उसके पत्ते है। अतः जड़ की रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि जड़ के कट जाने से वृक्ष ही समाप्त हो जाता है। अच्छा जीवन जीने के लिए नियमपूर्वक अनुशासन का पालन न करने पर मनुष्य विनाश की ओर बढ़ता है।
कहने का अभिप्राय यह है कि विद्वान ब्राह्मण को तीनों कालों में सन्ध्योपासना करने में भी प्रासाद नहीं करना चाहिए अन्यथा उसके ज्ञान का कोई महत्व नहीं रह जाता, अर्थात् उसकी विद्वता समाप्त हो जाती है। इसी प्रकार हर मनुष्य को अपने जीवन को अच्छा बनाने के लिए अनुशासनपूर्वक नियमों का पालन करना चाहिए।
चाणक्य ने कहा है कि अज्ञानी व्यक्ति को कोई भी बात समझायी नहीं जा सकती है क्योंकि उसे किसी बात का ज्ञान तो है नहीं। ज्ञानी को तो कोई बात बिल्कुल सही तौर पर समझायी ही जा सकती है। किन्तु अल्पज्ञानी को कोई भी बात नहीं समझायी जा सकती, क्योंकि उसमें अल्प ज्ञान के रूप में अधकचरे ज्ञान का समावेश होता है जो किसी भी बात को उसके मस्तिष्क तक पहुंचने ही नहीं देता। इस बात को इस रूप में जाने कि जिस गृहस्थ की पत्नी दुष्ट होती है, उसका जीवन मरण के बराबर हो जाता है और जिसका मित्र नीच स्वभाव का हो उसका भी अन्त निकट ही समझा जाना चाहिए। ठीक इसी प्रकार जिसके नौकर-चाकर मालिक के सामने बोलते हो तो उसके लिए भी जीवन का कोई अर्थ नहीं होता है।
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जिस घर में सर्प का वास होता है वहां भी जीवन के लक्षण क्षीण हो जाते हैं। क्योंकि व्यक्ति की जरा सी भी लापरवाही उसके लिए घातक हो सकती है।
किसी भी विपत्ति से बचने के लिए व्यक्ति को धन की रक्षा करनी चाहिए अर्थात् धन का संचय करना चाहिए। क्योंकि धन यानी लक्ष्मी चंचल होती है। उसके उद्भव व प्रसारित एवं नष्ट हो जाने का कुछ पता नहीं चलता। विपत्तिकाल में संचित धन एवं व्यक्ति का विवेक व आत्मबल ही प्रभावी होते हैं, क्योंकि व्यक्ति यदि उद्यमशील है तो उसे किसी भी अवस्था में रहने की चुनौती स्वीकार होती है।
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि इसके साथ ही आवश्यक होता है कि सत्ताधारी यानी ईश्वर पर अटूट विश्वास हो। जो व्यक्ति इन सब बातों का ध्यान रखते हैं, वे कभी भी परेशान या दुःखी नहीं रहते।
किसी भी व्यक्ति का सम्मान जिस क्षेत्र में न हो, उसे उस क्षेत्र को तुरन्त त्याग देना चाहिए, क्योंकि सम्मान के अभाव में जीवन का कोई अर्थ नहीं होता है।
आचार्य चाणक्य का कथन है कि किसी भी व्यक्ति को वह स्थान भी त्याग देना चाहिए जहां उसकी आजीविका न हो क्योंकि जीविका रहित व्यक्तित्व सम्मान योग्य नहीं होता। इसी प्रकार वह देश, क्षेत्र का स्थान भी त्याज्य ही है जहां अपने मित्र व सम्बन्धी न रहते हों क्योंकि इनके अभाव में व्यक्ति कभी भी असहाय हो सकता है।
मनुष्य क्योंकि सामाजिक प्राणी है, अतः उसकी आवश्यकता की पूर्ति समाज में इन्हीं तत्वों से सम्भव है और जहां इन तत्वों का अभाव हो तब उसका वहां रहना, न रहना बराबर ही है।
इसे इस रूप में भी देखा जाना चाहिए कि वन्य प्राणी जलयुक्त प्रदेश में ही रहना पसन्द करते हैं और समूह में विचरण करते हैं, तब मनुष्य के लिए भी यह तत्व कम महत्वपूर्ण नहीं।
आचार्य चाणक्य मानव जीवन की पांच महत्वपूर्ण आवश्यकताएं मानते हैं और कहते हैं कि जिस स्थान पर इनकी पूर्ति न होती हो तो उस स्थान को त्याग देना चाहिए। धनी-मानी व्यापारी, कर्मकाण्डी पुरोहित शासन व्यवस्था में निपुणं राजा, सिंचाई अथवा जल आपूर्ति किसी भी व्यक्ति के लिए आवश्यक होते हैं। ध्यान रखें कि इनके अभाव में जीवन उचित नहीं होता अतः स्थान परिवर्तन कर लेना चाहिए।
क्योंकि धनी से श्रीवृद्धि, पण्डित से विवेक, निपुण राजा से व्यवस्था एवं जल आपूर्ति से मानवीय जीवन की सुरक्षा होती है, साथ ही वैद्य भी जीवन की सुरक्षा करते हैं। इनके अभाव में फिर जीवन कैसा?