Chanakya Niti : चावल से दस गुनी ज्यादा शक्ति आटे में होती है, आटे से दस गुनी अधिक शक्ति दूध में होती है, दूध से आठ गुनी अधिक शक्ति मांस में होती है और मांस से भी दस गुनी अधिक शक्ति शुद्ध घी में होती है। आचार्य चाणक्य का यह कथन अभीष्ट है कि अधिक शक्ति को पाने के लिए मांस के स्थान पर घी व दूध का प्रयोग वांछनीय है।
घी के सेवन में बल (वीर्य) बढ़ता है, और गर्म मांस के सेवन से मांस बढ़ता है। दूध के पीने से शरीर की पुष्टि व वृद्धि होती है और साग के खाने से व्याधियां बढ़ती हैं। (Chanakya Niti) अभिप्राय यह है कि ऊंचाई (कद) की वृद्धि के लिए दूध का और बल वृद्धि के लिए घी का सेवन करना चाहिए। मांस खाने से, तो शरीर पर केवल चर्बी ही चढ़ती है और साग-सब्जी का लगातार प्रयोग शरीर को क्षीण बना देता है। साग के लगातार उपयोग करने से व्यक्ति दुर्बल हो जाता है।
जिनकी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उचित मात्रा में धन है, पति-पत्नी एक दूसरे से मधुर व्यवहार करते हैं, एक-दूसरे के प्रति दोनों समर्पित हैं। जहां हमेशा आनन्द की तरंगें उठती हों, पुत्र बुद्धिमान तथा पुत्री बुद्धिमती हो, सेवक आज्ञा पालन करने वाले, भोजन आदि से अतिथि का सत्कार और भगवान शिव का पूजन रहता हो। (Chanakya Niti)
घर में प्रतिदिन स्वादिष्ट भोजन और मधुर पेयों की व्यवस्था हो तथा निरन्तर श्रेष्ठ पुरूषों का आना-जाना लगा रहता हो, साधु-महात्माओं का सत्संग होता हो। ऐसे सद्पुरूषों का गृहस्थाश्रम वस्तुतः प्रशंसनीय और धन्य है।
होता यह पृथ्वी उन महान् विभूतियों पर टिकी है जो अपने परिजनों के प्रति सज्जनता, दूसरों के प्रति दया, दुष्टों (दुर्जनों) के प्रति उनके जैसा ही व्यवहार, सज्जनों के प्रति प्रेम, दुर्जनों के प्रति कठोरता का बर्ताव करते हैं। विद्वानों के प्रति सहजता, शत्रुओं के प्रति वीरता दिखाते हैं व अपने से बड़ों के प्रति सम्मान, साधुओं के प्रति सहनशीलता दिखाते हैं। स्त्रियों के प्रति विश्वास न करके धूर्तता का व्यवहार करते हैं।
आचार्य चाणक्य (Chanakya Niti) कहते हैं कि ईश्वर अपने भक्त, सद्पुरूष अपने आश्रित और पिता अपने पुत्र के स्वभाव (सद्व्यवहार) से ही प्रसन्न होते हैं। इन्हें किसी भी तरह का लोभ नहीं होता और न ही वे किसी प्रलोभन के आग्रही होते हैं। बन्धु-बान्धव अच्छे खान-पान से खुश होते हैं। ये खुले हृदय से आवभगत करने व सेवा भाव से ही सन्तुष्ट होते हैं, परन्तु सच्चे ब्राह्मण तो मधुर व्यवहार से ही खुश रहते हैं।
अपने कर्त्तव्य पथ का निश्चय न कर सकने वाले व्यक्ति को न तो घर में सुख मिलता है और न ही वन में। घर उसे आसक्ति के कारण काटता है और वन परिवार को छोड़ने और अकेलेपन की पीड़ा से व्यथित करता है। सच्चा सुख न गृहस्थ में है और नहीं गृह परिवार के त्याग में, अपितु सच्चा सुख तो कर्तव्य पालन में है।
अन्न और जल का दान सभी दानों में श्रेष्ठ माना जाता है। अन्न और जल ही जीवन के मूल आधार हैं। अन्न, बल और सुख का साधन है इसलिए सद्पुरूष अन्न को अन्नदाता, प्राणदाता कहते हैं। जल भी जीवन है। इसी तरह तिथियों में द्वादशी तिथि को श्रेष्ठ माना गया है और गायत्री मन्त्र से बढ़कर दूसरा कोई मन्त्र नहीं माना गया। (Chanakya Niti)
गायत्री मन्त्र से बढ़कर जप, तप, ज्ञान और यज्ञ कुछ भी नहीं है। इसी प्रकार जन्म देने वाली माता के समान किसी देव को नहीं माना गया। मां का स्थान देवताओं से भी ऊंचा होता है। अतः इस जीवन को सफल व सुखद बनाने के लिए अन्न, जल का दान करते हुये, द्वादशी का व्रत धारण करना, गायत्री मन्त्र का जाप करना तथा मां की सेवा-सुश्रूषा करने का नियम हर बुद्धिमान पुरूष को अपनाना चाहिए, इसी में मुक्ति है।
यदि ईश्वर की अनुकम्पा (कृपा) से मनुष्य को सुन्दर सच्चरित्र स्त्री, आवश्यकता भर की पूर्ति के लिए पर्याप्त लक्ष्मी, चरित्रवान और गुणवान वंशवर्द्धक पोता प्राप्त हो गया है तो उसके लिए स्वर्ग इसी धरती पर है। स्वर्ग में इससे अधिक सुख और क्या मिलेगा?