Chanakya Niti Hindi : यहां पर यदि गहराई और सच्चाई से विचार किया जाये, तो लोक प्रचलित उक्त सत्य ही सिद्ध होती है-मानो तो शंकर, नहीं तो कंकर। इसी बारे में आचार्य चाणक्य ने कहा है-कि परमेश्वर न काष्ठ (लकड़ी) में है और न ही पत्थर की मूर्ति में। परमेश्वर तो मानव-मन की भावना में है। हर मनुष्य के हृदय की सच्ची श्रद्धा भावनाओं में ही परमेश्वर का निवास है। श्रद्धापूर्वक कोई भी कल्याणकारी कार्य किया जाये, उस कार्य में परमेश्वर की कृपा से अवश्य सफलता मिलेगी। अतः मनुष्य की श्रद्धा भावना ही प्रतिमा में देवता का वास मानती है और भावना का अभाव प्रतिमा को साधारण जड़ पदार्थ बना देता है।
Chanakya Niti Hindi : मन की भावना या श्रद्धापूर्वक यदि लकड़ी, पत्थर या धातु निर्मित मूर्ति की पूजा की जायेगी तो सर्वव्यापक परमात्मा अपने भक्त की भावना से प्रसन्न होंगे। उस अटूट श्रद्धा से भक्त को कोई न कोई अच्छा फल अवश्य मिलेगा। जड़ वस्तु में भी ईश्वर का निवास होता है, ईश्वर को ही वृत्ति मानकर उसका आदर करना चाहिए।
अतः जो मनुष्य जिस भावना से मूर्ति पूजन करता है, श्री विष्णु नारायण की कृपा से उसे वैसी ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है। शास्त्रों के अनुसार अभीष्ट सिद्धि के लिये साधक द्वारा श्रद्धापूर्वक मूर्ति-पूजन करना ही वांछनीय है।
Chanakya Niti Hindi : जिस धर्म में दया नहीं, वह धर्म, धर्म नहीं। ऐसे धर्म को अपनाये रखने से कोई से कोई लाभ नहीं। जिस गुरु के पास ज्ञान नहीं, उसकी सेवा करने से अर्थात् शिष्य बने रहने से कोई लाभ नहीं, निरन्तर झगड़ा करने वाली पत्नी को घर में रखने से कोई लाभ नहीं, उसे छोड़ देना ही श्रेयष्कर है। बन्धु-बान्धवों के मन में स्नेह न हो तो उनका परित्याग करना ही अच्छा होगा। अभिप्राय यह है कि सच्चा धर्म वही है जिसमें दया, करुणा का भाव हो, विद्या निपुण व्यक्ति ही गुरु बनने के योग्य होता है। शान्त और सहनशील पत्नी ही पत्नी बनने के योग्य होती है। और दुःख में द्रवित होने वाले बन्धु-बान्धव से ही सम्बन्ध रखने चाहिए। यही वांछनीय है।
सभी मनुष्य की अपनी जुदा-जुदा आकांक्षाएं होती हैं। धनहीन-धन की इच्छा करते हैं। पशु-चार पैरों वाले-वाणी की इच्छा करते हैं। मनुष्य-सुख भोग की इच्छा करते हैं। साधारण मनुष्य-अन्न कर्म से मुक्त होने की प्रतीक्षा करते हैं। उसमें भी आगे बढ़ने वाले साधक देवता लोग-मोक्ष की आकांक्षा करते हैं।
Chanakya Niti Hindi : इस क्षण-भंगुर संसार में धन-वैभव का आना-जाना अस्थिर है। लक्ष्मी चंचल स्वभाव की है। घर-परिवार भी नश्वर है। बचपन, जवानी और बुढ़ापा भी स्वयं ही आते हैं और चले जाते हैं। कोई भी मनुष्य उन्हें अपने बन्धन में सदा के लिए नहीं बांध सकता। इस अस्थिर संसार में केवल धर्म ही अचल है। धर्म के नियम ही शाश्वत हैं। उनकी रक्षा करना मनुष्य का कर्त्तव्य है।
अतः समस्त प्राणियों को नश्वर जगत की अनिपत्य वस्तुओं का मोह छोड़कर स्थिर धर्म के सेवन में प्रवृत्त होना चाहिए। यही मानव के लिए हितकर है।
पूरे एक वर्ष तक नित्य प्रति मौन रहकर भोजन करने वाला साधक करोड़ों कल्पों तक (एक कल्प में चार युग-सतयुग, द्वापरयुग, त्रेतायुग और कलियुग होते हैं, और इन चारों की अवधि क्रमशः बारह, दस, आठ, और छः हजार दिव्य वर्ष मानी गयी है।) स्वर्ग में रहता है और वहां न देवी-देवताओं के लिए भी ऐसा साधक पूज्य होता है।
ऐसे ब्राहमण को महापुरुष कहा जाता है, जो उस भूमि से उत्पन्न फल और कन्दमूल खाकर जीवन-यापन करता है जो जोती न गयी हो, जो सदैव ही वनवास प्रेमी हो और जो नित्य ही श्रद्धावान हो।
मनुष्य का शरीर, धन-सम्पत्ति सभी चीजें नाशवान् हैं। धर्म ही एक ऐसी चीज है जो अजर-अमर हैं हर व्यक्ति को धर्म-संग्रह में प्रवृत्त रहना चाहिए।
अभिप्राय यह है कि बुद्धिमान व्यक्ति को यह निश्चित समझना चाहिए कि उसका शरीर नाशवन् (सदा न रहने वाला) है। इसी प्रकार वैभव, धन-सम्पत्ति भी सदा किसी के पास नहीं रहती। हां मृत्यु निश्चित है, अर्थात् यह सत्य है कि जो प्राणी पैदा हुआ है, वह एक दिन अवश्य मरेगा। मृत्यु को सदैवं अपने समीप समझना है और समझना भी चाहिए। इस स्थिति में मनुष्य को सांसारिक उलझनों को छोड़कर धर्म-संग्रह में लगे रहना चाहिए, क्योंकि धर्म ही हमारा सच्चा मित्र है। मृत्यु के पश्चात् केवल धर्म ही हमारे साथ जाता है। बाकी सारा वैभव यहीं रह जाता है। धर्म ही अजर है, अमर है।
बुद्धिमान पुरुष को अपने आहार को, खाने-पीने को जुटाने की चिन्ता नहीं करनी चाहिए, उसे तो केवल धर्म के अनुष्ठान में ही लगे रहना चाहिए, क्योंकि उसका आहार तो मानव के जन्म लेते ही उत्पन्न हो जाता है, अर्थात् परमपिता परमात्मा ने जिस प्राणी को जन्म दिया है, आहार तो उसके भाग्य का उसे मिलता ही है। दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम! यह उक्ति जगप्रसिद्ध है। अतः आहार के सम्बन्ध में चिन्तित न होकर हमें अपने धर्म-कार्यों में लगे रहना चाहिए।