chanakya niti: मैं तीनों लोकों के स्वामी भगवान के चरणों को शीश नवाकर प्रणाम करता हूं, किसी भी शुभ कार्य को प्रारम्भ करने से पूर्व ईष्ट देव की स्मरण-परम्परा का निर्वाह करते हुए आचार्य चाणक्य कहते हैं कि तीनों लोकों के स्वामी भगवान विष्णु हैं और कार्य साधक हैं, उनको प्रणाम!
जब परमपिता परमेश्वर भगवान विष्णु ही इस समस्त संसार रूपी सृष्टि का पालन-पोषण करने वाला है तो मुझे अपने जीवन में किस बात की चिन्ता है? यदि परमेश्वर जगत का पालनहार न होता तो शिशु के जन्म लेते ही मां के स्तनों में दूध कैसे आ जाता? हे यदुपते! हे लक्ष्मीपतेः त्रिभुवन के स्वामी, आपके सृष्टि पोषक होने पर विश्वास करते हुए मैं आपके चरण कमलों की सेवा में अपना सर्वस्व जीवन समर्पित करता हूं मैं आपकी सेवा में सारा समय व्यतीत करता हूं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप मेरा भी यथोचित पालन-पोषण अवश्य करेंगे।
कलियुग में दस हजार वर्ष व्यतीत होने पर भगवान विष्णु पृथ्वी को त्याग देते हैं, पांच हजार वर्ष व्यतीत होने पर गंगाजल पृथ्वी को छोड़ देता है, और ढाई हजार वर्ष व्यतीत होने पर ग्राम देवता ग्राम या पृथ्वी का त्याग कर देते हैं।
chanakya niti: चाणक्य कहते हैं मनुष्य योनि में जन्म लेने के पश्चात् भी जिसका भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अनुराग नहीं, जिसको श्री राधाजी और श्रीकृष्ण व गोपियों के गुणगान में आनन्द नहीं आता, भगवान श्रीकृष्ण की कथा का श्रवण करने के लिए जिसके कान सदा उत्सुक नहीं रहते, कीर्तन में बजाया जाने वाला मृदंग (तबला) भी उन्हें फटकारता रहता है। जड़ वस्तु रूपी मृदंग भी उन्हें धिक्कार है-धिक्कार है, इस प्रकार (धिक्तान-धिक्तान) फटकारता है, क्योंकि वह भी जीवन की वास्तविक उपयोगिता को भली प्रकार समझता है।
chanakya niti: किसी भी कार्य को करने से पहले देख लेना चाहिए कि उसका प्रतिफल क्या मिलेगा? यदि प्राप्त लाभ से बहुत अधिक परिश्रम करना पड़े तो ऐसे परिश्रम को न करना ही अच्छा है। माला गूंथने से, चंदन घिसने से या ईश्वर की स्तुति का स्वयं गान करने से ही किसी भी मनुष्य का कल्याण नहीं हो जाता है, वे कार्य तो हर कोई कर सकता है, वैसे जिनका यह व्यवसाय है उन्हें ही वैसा करना शोभा देता है।
अभिप्राय यह है कि मनुष्य को वही कार्य करना चाहिए जो उसके लिए उचित व कम परिश्रम से अति फलदायक हो।
जिस व्यक्ति पर परमपिता भगवान विष्णु की कृपादृष्टि हो जाती है उसके लिए तीनों लोक अपने ही घर के समान हैं। जिस पर प्रभु का स्नेह रहता है उसके सभी कार्य स्वयं सिद्ध हो जाते हैं। अतः लक्ष्मी जिसके लिए मातृ स्वरूप और ईश्वर के भक्त बन्धु-बान्धव हैं, उसके लिए तीनों लोक ही निवास स्थान हो जाते हैं।
ब्राह्मण के लिए सम्पन्न व श्रद्धालु से निमन्त्रण पाना ही उत्सव अर्थात् प्रसन्नता का विषय और उनके लिए शुभ अवसर है। अपने पति की प्रसन्नता ही गृहणी के लिए उत्सव अर्थात् सौभाग्य है। परन्तु सच्चे सन्त के लिए तो श्रीकृष्ण भगवान के चरणों में अनुराग (प्रेम) ही उत्सव होता है।
chanakya niti: जो व्यक्ति परम पिता परमात्मा में ही जड़-चेतन, सुख-दुख और लाभ हानि का दर्शन करते हैं, ऐसा दिव्य दृष्टि प्राप्त व्यक्ति दूसरों स्त्रियों को माता के समान, किसी अन्य के धन को मिट्टी के समान और हर प्राणी को अपने समान देखते व समझते हैं। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि सच्चे अर्थों में ऐसे व्यक्ति ही महान् कहलाते राम भक्त के विचारानुसार भगवान श्रीरामचन्द्र को गुरूदेव महर्षि वशिष्ठ के शब्दों में पुरूषोत्तम इसलिये कहा गया है कि निम्नोक्त सभी दिव्य गुण अपने समग्र और उत्कृष्ट रूप से एकमात्र उनके अन्दर ही मिलते हैं। इसी कारण से उन्हें पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम भी कहा गया है। वे दिव्य गुण हैं :
धर्म परायणता, मधुरवाणी, दानशीलता, निकटतम मित्रों के प्रति उदार हृदय, गुरू के प्रति पूज्य भाव, अन्तःकरण में समुद्र की सी गम्भीरता, आचार-व्यवहार में पवित्रता, गुणों के प्रति आग्रह (अर्थात् गुणी व्यक्ति का यथोचित आदर और गुण ग्रहण में रूचि), शास्त्रों में निपुणता (पूर्व ज्ञान, शास्त्र ज्ञान), रूप में मोहकता (सुन्दरता), और भगवान शिव में निष्ठापूर्ण (विश्वास रखने वाला) भक्तिभाव रखने वाला।
कहने का अर्थ यह है कि उपरोक्त गुणों से शोभित होने के कारण ही राजा दशरथ के पुत्र राम-मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम कहलाये।
परमपिता परमात्मा सर्वगुण सम्पन्न, सर्वव्यापी एवं सर्वज्ञाता हैं, उनकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती है। हे राघवेन्द्र इस संसार में ऐसा कुछ भी नहीं जिससे आपकी तुलना की जा सके। इस कारण आप सर्वथा अनुपम और अद्वितीय हैं।
उदाहरणार्थ-कल्पवृक्ष लकड़ी का है, सुमेरू पर्वत है, चिंतामणि पत्थर है, सूर्य की किरणें बहुत अधिक तीखी व जलाने वाली हैं, चन्द्रमा क्षीण होने वाला है, समुद्र खारे जल वाला है, कामदेव का शरीर ही नहीं है। बलि दैत्य वंश से सम्बद्ध है और कामधेनु पशु रूप है, तब आपकी तुलना किससे की जाये? आपके समान तो कोई भी नहीं।
कहने का अर्थ यह है कि आपको कल्पवृक्ष के समान दानी, पर्वत के समान विशाल, चिन्तामणि के समान कान्तिमान, सूर्य के समान तेजस्वी, चन्द्रमा के समान दर्शनीय, समुद्र के समान गम्भीर, कामधुन के समान अभीष्ठ पूरा करने वाला नहीं कहा जा सकता। भला काठ, पत्थर, खारेपन, आग और पशु आदि से आपकी तुलना किस प्रकार की जा सकती है? आप तो इन सबसे महान हैं।
मनुष्य को दुर्जनों से मित्रता छोड़कर साधु स्वभाव के लोगों का सत्संग करना चाहिए। रात-दिन, शुभ कार्य करते हुए व्यतीत करने चाहिए और संसार के भोगों (मोह-माया) को क्षण-भंगुर मानकर नित्यप्रति आनन्द देने वाले प्रभु का चिन्तन (भजन, उपासना) करना चाहिए।
कहने का अर्थ यह है कि दुर्जनों की संगत दुःखदायी होती है, उसे छोड़कर साधु की संगत करनी चाहिए। मोह-माया त्यागकर सद्कर्म करते हुए ईश्वर-उपासना में लीन रहने वाले व्यक्ति का ही आत्म-कल्याण सम्भव है।
गोपी श्रीकृष्ण से कहती है-श्रीकृष्ण! तुमने एक बार गोवर्द्धन पर्वत को क्या उठाया कि इस लोक में ही नहीं, अपितु स्वर्गलोक में भी तुम गोवर्द्धन गिरधारी के नाम से प्रसिद्ध हो गये, परन्तु तीनों लोकों को धारण करने वाले त्रिलोकधारी! मैं तुम्हें हर समय अपने हृदय में धारण करती हूं, तुम ही मेरे हृदय में विराजते हो। इस पर भी आश्चर्य है कि तुम्हारे जैसे समर्थ त्रिलोकधारी को धारण करने पर भी हमारी कहीं कोई गणना नहीं करता, हमें कोई भी त्रिलोकधारी जैसी पदवी से अलंकृत नहीं करता।
संसार की इस प्रवृत्ति से खिन्न गोपी अपने मन को समझाने के लिए कहती है- वास्तव में इससे किसी का कोई दोष नहीं। यश तो भाग्य से ही मिलता है। जब मेरे भाग्य में कुछ लिखा ही नहीं तो मिलेगा कहां से?