chanakya neeti: ब्रह्मज्ञानी के लिए स्वर्ग तुच्छ हैं, शूरवीर के लिए जीवन नगण्य है इन्द्रियों को वश में रखने वाले के लिए नारी महत्वहीन है। उसे सुन्दरी का रूप लावण्य न तो मोहित करता है ना ही लालायित। जितेन्द्रिय के लिये खूबसूरत नारी के तथाकथित रूप-लावण्य से भरपूर अंग मांसपिण्ड के अलावा कुछ नहीं, इसीलिए उसको स्त्री भी अन्य साधारण वस्तुओं के समान उपेक्षित है।
योगी किसी भी पदार्थ की लालसा न रखने वाले के लिये अनन्त सुन्दर निधियों से भरा यह संसार तिनके के समान तुच्छ है, क्योंकि योगी को इस संसार का कोई पदार्थ न तो मोहित कर सकता है और न ही वह किसी भी पदार्थ को महत्व ही देता है।
अतः ब्रह्मज्ञानी के लिये स्वर्ग, शूरवीर के लिये जीवन, इन्द्रियों को वश में रखने वाले के लिए नारी, जितेन्द्रिय के लिए खूबसूरत रमणी का सुन्दर शरीर, योगी के लिए यह संसार तुच्छ (महत्वहीन) है। (chanakya neeti)
बादलों से बरसे जल के समान गुणकारी जल, मनुष्यकृत प्रयत्नों से प्राप्त जल नहीं हो सकता। आत्मबल अन्य शारीरिक शक्ति से अधिक बलशाली होता है। अपनी आंखों की ज्योति सब ज्योतियों से अधिक सुखप्रद होती है। अन्न के समान कोई दूसरा भोजन नहीं होता।
अन्य किसी भी खाद्य पदार्थ से वह पोषण व शक्ति नहीं मिल सकती जो अन्न द्वारा बने भोजन में होती है। सत्य ही सब चराचर जगत् का आधार है। (chanakya neeti) नित्य सत्य नियमों पर ही पृथ्वी टिकी हुई है। पृथ्वी के सब कार्य-कलाप, सूर्य का उदय होना, अस्त होना, वायु का नियमपूर्वक चलना, प्राणियों को सांस लेने का आधार देना आदि सभी प्राकृतिक कार्य शाश्वत सत्य नियमों के अनुसर स्वयं चल रहे हैं।
सत्य में ही सबकी प्रतिष्ठा है। सत्य ही ईश्वर है। अतः यदि मनुष्य सत्य की रक्षा नहीं करेगा तो उसका कल्याण नहीं हो पायेगा। पवित्रता अनेक प्रकार की होती है। सामान्यतया जल से शरीर और वस्त्रों की पवित्रता को ही पवित्रता का प्रयोजन माना जाता है, किन्तु परमार्थ में लगे सन्तों, सद्पुरुषों की पवित्रता मन एवं वाणी की पवित्रता होती है।
संयम से इन्द्रियों की पवित्रता होती है। सब प्राणियों के प्रति दया भाव रखने से आत्मा पवित्र होती है। त्याग व तपस्या से मन पवित्र होता है।
यहां आचार्य चाणक्य (chanakya neeti) का भाव यह है कि किसी भी पवित्रता का मानव जीवन में तब तक कोई महत्व नहीं है, जब तक वह जीव मात्र के प्रति दया की भावना को नहीं अपनाता। परोपकार ही सच्ची पवित्रता है। परोपकार की भावना को अपनाये बिना मन, वाणी और इन्द्रियां पवित्र हो ही नही सकतीं।