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Chanakya ki Niti: जीवन की पांच महत्वपूर्ण आवश्यकताएं – चाणक्य

Chanakya ki Niti,

Chanakya ki niti: आचार्य चाणक्य मानव जीवन की पांच महत्वपूर्ण आवश्यकताएं मानते हैं और कहते हैं कि जिस स्थान पर इनकी पूर्ति न होती हो तो उस स्थान को त्याग देना चाहिए। धनी-मानी व्यापारी, कर्मकाण्डी पुरोहित शासन व्यवस्था में निपुण राजा, सिंचाई अथवा जल आपूर्ति किसी भी व्यक्ति के लिए आवश्यक होते हैं। ध्यान रखें कि इनके अभाव में जीवन उचित नहीं होता अतः स्थान परिवर्तन कर लेना चाहिए।

क्योंकि धनी से श्रीवृद्धि, पण्डित से विवेक, निपुण राजा से व्यवस्था एवं जल आपूर्ति से मानवीय जीवन की सुरक्षा होती है, साथ ही वैद्य भी जीवन की सुरक्षा करते हैं। इनके अभाव में फिर जीवन कैसा?

Chanakya ki niti: लोक समाज में रहने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति में लज्जा व भय हो, क्योंकि जिस समाज में ऐसे व्यक्तियों का अभाव हो तो वह समाज निर्धन हो जाता है। आस्था विश्वास नहीं रखते हों वह स्थान भी त्याज्य है। किसी भी समाज के लिए त्यागी व्यक्तियों की नितान्त आवश्यकता होती है, इसलिए जिस समाज में त्यागी प्रवृत्ति के लोग न हों वह प्रगतिशील नहीं हो सकता।

जिस समाज के लोगों में चतुराई नहीं होती वह समाज भी रहने योग्य नहीं होता क्योंकि चतुराई अर्थात् विवेक प्रगति व खुशहाली का प्रतीक होता है। अतः मनुष्य को कहीं भी रहते समय इन बातों का ध्यान रखना चाहिए।

आचार्य चाणक्य की यह नीति मार्ग-दर्शन करती है कि व्यक्ति को देशकाल व समाज के अनुरूप रहने की व्यवस्था करनी चाहिए।

Chanakya ki niti: समय पड़ने पर कौन है जो साथ देता है और सौंपे गये दायित्वों की पूर्ति करता है? आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जिस व्यक्ति के सेवक अपने मालिक के द्वारा सौंपे गये दायित्वों की निष्ठापूर्वक पूर्ति करते हैं, तो वह व्यक्ति समाज में सम्मान पाता है।

जिसके भाई-बान्धव बुरी अवस्था में सहयोगी हों अर्थात् संकट-काल में काम आने वाले हों तो उसे फिर कष्ट कैसा? आचार्य चाणक्य का कथन है कि जिस व्यक्ति की पत्नी धन रहित अवस्था में दाम्पत्य निभाती है, उस व्यक्ति का जीवन सार्थक होता है।

मनुष्य को संसार में सहायकों, सेवकों, बन्धु-बान्धवों, परिजनों व मित्रों की आवश्यकता समय-समय पर पड़ती है, तब जिन व्यक्तियों को इनका अभाव रहता तो उनका जीवन भी मरण के समान ही होता है। वह कहते हैं कि इसके विपरीत इन तत्वों से युक्त व्यक्ति ही सुख भोगता

किसी भी व्यक्ति को बन्धु-बान्धव, मित्र व परिजन की यदि पहचान करनी हो तो अपनी विपत्ति काल में करें, क्योंकि किसी व्यक्ति को जब कोई लाइलाज रोग घेरता है, कोई शत्रु आक्रमण करता है या फिर उस पर मुकदमा चलता हो अथवा वह अपने किसी प्रिय को श्मशान ले जाता हो तो ऐसे समय में उसके काम आने वाले ही वास्तव में उसके बन्धु-बान्धव एवं परिजन व मित्र होते हैं।

मनुष्य का जीवन विपत्तियों से भरा हुआ है। ऐसे में जो भी उसके सहयोगी हैं वही उसके अपने हैं। आचार्य चाणक्य का कथन है कि विपदा काल में ही अपने पराये का ज्ञान होता है। उन्होंने स्पष्ट संकेत दिया है कि सुखद अवस्था में तो सभी अपने हो जाते हैं, जबकि वास्तव में अपने तो विपत्ति में ही काम आते है।

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