-तिवारी ने माना कि टिकट 2 बजकर 59 मिनट पर ही कटी थी और चन्दुलाल उनके घर पर ही थे
रायपुर/नवप्रदेश। cg election 2023: दैनिक नवप्रदेश ने अपने चुनाव सीरिज में गत 25 अक्टूबर को छापा था कि 1991 में मोतीलाल वोरा की दुर्ग लोकसभा की टिकट 2 बजकर 59 मिनट पर कटी थी। इस खबर में इस बात का उल्लेख था जिस समय वोरा नाम वापस ले रहे थे उस समय चन्दुलाल चंद्राकर मध्यप्रदेश कांग्रेस के महामंत्री कनक तिवारी के घर में थे।
खबर पढऩे के बाद श्री कनक तिवारी ने दैनिक नवप्रदेश के लिए वह पुरा किस्सा ही लिख डाला जिसमें वोरा की टिकट कटी थी। श्री तिवारी ने माना कि टिकट 2 बजकर 59 मिनट पर ही कटी थी और चन्दुलाल उनके घर पर ही थे। लेकिन इसकी पटकथा या कहे अंतरकथा श्री कनक तिवारी के शब्दों में कुछ यूं थी।
जब मैं मप्र कांग्रेस कमेटी का महामंत्री था, तब नई दिल्ली में मैं अरविन्द नेताम के शासकीय निवास 19, फिरोज़शाह रोड में ही ठहरता था। 1991 के लोकसभा चुनाव में दुर्ग सीट से मोतीलाल वोरा का नाम कांग्रेस की ओर से फाइनल हो जाने के तत्काल बाद मुझे माधवराव सिंधिया का फोन आया। बच्चों की तरह चिढ़ाने वाली शैली में सिंधिया ने कहा ‘कनक जी, यह दिल्ली की राजनीति है।
आपकी समझ में नहीं आएगी। आप लोगों ने वोरा जी के नाम का बहुत विरोध किया, लेकिन हुआ क्या? जाइए, अपने शहर स्तर की राजनीति करिए। मैंने पहले भी आपसे कहा था।” सिंधिया की बात मुझे चुभ गई। मैंने बेहद अपमानित महसूस किया। दुर्ग से लगातार सांसद रहे चंदूलाल चंद्राकर के पक्ष में हमने जबरदस्त लॉबिंग तो की थी। उम्मीद थी टिकट उन्हें मिलेगी। ऐन वक्त पर सिंधिया, श्यामाचरण शुक्ल और वोरा की तिकड़ी ने बाजी मार ली। असल में मेरी माधवराव सिंधिया से बिलकुल नहीं पटती थी। मैंने उन्हें और उन्होंने मुझे कभी पसन्द नहीं किया।
मन हार मानने को तैयार नहीं हुआ। प्रदेश कांग्रेस का महामंत्री होकर मेरा राजनीतिक ओहदा इतना बड़ा तो नहीं था कि केन्द्रीय चुनाव समिति के फैसले को लेकर अनुकूल बदलाव करा पाता। राजनीति वही है, जहां बाजी कभी भी पलट सकती है। यह चुटकुला राजनीति में मशहूर रहा कि मौत या कांग्रेस टिकट कब आ जाए, कोई दावा नहीं कर सकता। नेताम की दोहरी मुसीबत थी।
दुर्ग जिले की राजनीति में वे चंद्राकर गुट के खिलाफ नहीं जा सकते थे। उस जिले की गुंडरदेही, बालोद और डौंडी लोहारा की तीन विधानसभा सीटों पर वोटों की बढ़त से ही कांकेर लोकसभा क्षेत्र से नेताम का जीतना तय होता था। तीनों सीटों का प्रचार प्रभार अमूमन मेरे भी जिम्मे होता था। पिछड़े वर्ग के मतदाताओं पर चंद्राकर गुट की पकड़ पिछड़ा वर्ग के जातीय आधार पर लगातार मजबूत रही। दुर्ग जिला वैसे भी पिछड़ा वर्ग बहुल राजनीति का केन्द्र बनाया जाता रहा है।
नेताम को साथ लेकर चंदूलाल चंद्राकर और मैं अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी पहुंचे। केन्द्रीय चुनाव समिति की बैठक चल रही थी। नेताम मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के कार्यकारी अध्यक्ष होने के नाते अंदर जा सके। चंदूलाल चंद्राकर के साथ मैं बाहर पेड़ के नीचे खड़ा रहा। थोड़ी देर बाद नेताम राजीव गांधी को साथ लेकर बाहर आए। राजीव ने मुस्कराते हुए देखा और कहा परेशान मत हों। राजनीति में फैसले कई कारणों से करने पड़ते हैं।
आगे चलकर सब ठीक कर दिया जाएगा। चंदूलाल चंद्राकर चुपचाप खड़े रहे क्योंकि मामला उनकी टिकट कटने का था। मैं प्रादेशिक राजनीति में नया नया वाचाल धुकपुक हालत के बावजूद चुप नहीं रह पाया। मैंने राजीव जी से कहा कि छत्तीसगढ़ की पांच सामान्य सीटों पर लगातार चार सीटों राजनांदगांव से क्षत्रिय शिवेन्द्र बहादुर सिंह, दुर्ग से ब्राह्मण मोतीलाल वोरा, रायपुर से ब्राह्मण विद्याचरण शुक्ल और महासमुंद से ब्राह्मण पवन दीवान को टिकटें मिली हैं। चारों सीटों पर प्रमुख प्रतिद्वंद्वी भाजपा ने पिछड़े वर्ग के उम्मीदवार खड़े किये हैं। खेल उच्च वर्ग बनाम पिछड़ा वर्ग हो जाएगा और कांग्रेस चारों सीटों सहित बाकी कई सीटें भी हार जाएगी। मैदानी राजनीति के त्वरित तर्क से राजीव गांधी आश्वस्त लगे।
राजीव ने तर्क सुने। उनका माथा ठनका। शिवेन्द्र का टिकट नहीं कट सकता था। वे राजीव और संजय के मित्र भी थे। विद्याचरण शुक्ल का सियासी कद काफी ऊंचा था। वे छत्तीसगढ़ के नाभि केन्द्र रायपुर में राजनीति का संचालन भाई श्यामाचरण शुक्ल के साथ कर रहे थे। संत कवि पवन दीवान का महासमुन्द में लोकप्रियता के आधार पर विकल्प नहीं था। फिर राजीव की परेशानी दुर्ग लोकसभा पर टिकी।
वहां से पिछड़े वर्ग के चंदूलाल चंद्राकर को टिकट दे देने से छत्तीसगढ़ में जीत की संभावना बढ़ती दिखाई दे रही होगी। उन्होंने नेताम और मेरी हमारी आंखों में आंखें डालकर कहा ‘ओ के डन। चंद्राकर जी ही लड़ेंगे’ और लौटकर अपनी मीटिंग में चले गए। नेताम, चंदूलाल चंद्राकर और मैं लौटे। थोड़ी देर बाद कांग्रेस दफ्तर से नेताम के पास खबर आई दुर्ग का टिकट चंदूलाल चंद्राकर के नाम फाइनल कर दिया गया है। प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष अर्जुन सिंह को भी भोपाल में खबर कर दी गई है। अर्जुन सिंह ने मोतीलाल वोरा केे पक्ष में अधिकृत उम्मीदवार की घोषणा करने संबंधी बी फॉर्म पर दस्तखत कर दिए थे। एक संदेशवाहक उसे लेकर दुर्ग आने ही वाला था।
यह बदलाव हमारी राजनीति के लिए ऑक्सीजन बनकर आया। मैंने अर्जुन सिंह को फोन किया। वे भोपाल से दिल्ली के लिए निकल चुके थे। मेरी सूचना उन्हें पहले से मालूम हो गई थी। आखिर वे अर्जुन सिंह थे। मैंने पूछा इस घटना पर क्या कहना चाहेंगे? मुझे अच्छी तरह याद है। एक एक शब्द को तौल तौलकर बल्कि चबा चबाकर अर्जुन सिंह ने कहा ‘कनक जी! मैं हतप्रभ हूं। हतप्रभ ही रहना चाहूंगा। दोनों बी फॉर्म आपको दिए जाएंगे। अब फोन मैंने सिंधिया को लगाया। उनकी भर्राई हुई आवाज आई ‘यह कैसे हो गया?’ अब मेरी बारी थी।
मैंने अपनी विजय को शाइस्तगी की चाशनीयुक्त जबान में डुबाकर कहा ‘महाराज! मैं तो कस्बे का मामूली कार्यकर्ता हूं। दिल्ली की राजनीति नहीं जानता, लेकिन राजीव गांधी की राजनीति को जानता हूं। अब आपके हाथ से जीत के तोते उड़ चुके हैं। वे एक नए लिफाफे में बंद होकर मेरे पास पहुंचने के लिए भोपाल से दुर्ग छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस में संदेशवाहक की जेब में फडफ़ड़ा रहे हैं।”
मोतीलाल वोरा मूलत: जुझारू वृत्ति के मैदानी कार्यकर्ता रहे हैं। उनसे ज़्यादा मेहनती व्यक्ति मैंने जीवन में नहीं देखा। आठ साल की प्राध्यापकी छोड़कर जब मैं नौकरी से आजाद हुआ तो वोरा की सहमति से ही मैंने पत्रकारिता शुरू की थी। लोकसभा की टिकट मिलने के आश्वासन के साथ वोरा का प्रचार तेज गति से शुरू हो चुका था। दीवारें रंग गई थीं। झंडे लग गए थे। मोटर गाडिय़ों का प्रबंध हो गया था। बड़े बड़े होर्डिंग्स और कटआउट सज रहे थे। कार्यकर्ताओं की टीम गठित हो रही थी। कुल मिलाकर भाजपा से सीट छीन लेने की मुहिम युद्ध के अभ्यास की तरह उन्मत्त हो रही थी। अचानक सारी उम्मीदों पर पाला पड़ गया।
बी फॉर्म मेरी जेब में पहुंच गए थे और पहले हताश लेकिन बाद में उत्साह से लबरेज चंदूलाल चंद्राकर मेरे घर में बेडरूम में चुपचाप रात भर पड़े रहे थे। मेरे घर के सामने काफी बड़ा मैदान है। वहां बड़े हुजूम के साथ वोरा जी रात को अपने कई समर्थकों के साथ बैठे रहे। जुगत हो रही थी किस तरह यह मामला हल किया जाए। पता नहीं क्यों मेरे घर आने की कोई इच्छा नहीं कर रहा था या जरूरत महसूस नहीं हो रही थी। भीड़भाड़ देखकर चंद्राकर समर्थकों को मैंने घर आने से मना कर दिया। चंदूलाल एक करवट लेकर जो सोए तो रात भर हिले नहीं।
यह चमत्कार केवल उनमें था वरना ऐसी राजनीतिक ऊहापोह के चलते आदमी सोएगा क्या? वह तो बेचैन रहेगा! वोरा समर्थकों की रात बहुत भारी कटी।
इसी बीच घर का टेलीफोन लगातार घनघना रहा था। सिंधिया, श्यामाचरण शुक्ल और वोरा की तिकड़ी ने राजीव गांधी का दिमाग फिर घुमा दिया था। वोरा को टिकट देने का माहौल फिर बन रहा था। जानकारी के अनुसार राजीव ने कहा कि जब तक मैं चंदूलाल चंद्राकर से फोन पर बात नहीं कर लूं, तब तक कुछ पक्का मत समझिए। उन्हें मालूम था शायद चंदूलाल चंद्राकर मेरे यहां छिपे हैं।
मोबाइल फोन नहीं होते थे। मेरे लैंडलाइन फोन पर जॉर्ज की आवाज आई। मैं जानता था अपशकुन की बाईं आंख फड़क रही है। मैंने अपने घर में कहा सारे फोन अटेंड करें। छूटते ही कहें कि मैं और चंदूलाल चंद्राकर दौरे पर हैं। हमें उनके बारे में कोई खबर नहीं है। बार बार फोन आता था और बार बार वही जवाब जाता था। एक बार जॉर्ज ने झल्लाकर कहा कि हम जानते हैं ‘आप लोग झूठ बोल रहे हैं लेकिन हम क्या कर सकते हैं। हमें वोरा जी की तरफ से खबर है कि चंदूलाल चंद्राकर जी आपके घर में हैं।’
यदि वोरा मेरे घर आ ही गए होते तो मैं कह नहीं सकता मैं क्या करता? कौन सा लिफाफा किसकी किस्मत का ताला खोलता? वह यदि वैसा होता तब पता चलता। वोरा जी आ सकते थे। लेकिन मैं साफ कहूंगा मुझे उनका व्यवहार बहुत प्रभावित कर गया। भले ही उनकी टिकट कट गई।