नीरज मनजीत। Capital of Poland : 14 मई 1955 को सोवियत संघ की पहल पर पोलैंड की राजधानी वारसा में साम्यवादी-समाजवादी देशों ने “वारसा संधि संगठन” का ऐलान किया। बताया गया कि परस्पर सहयोग और मित्रता को बढ़ावा देने के लिए यह संगठन बनाया गया है। मगर सारी दुनिया जानती थी कि इसे अमेरिका की अगुआई में गठित सैन्य संगठन नाटो के मुकाबले खड़ा किया जाएगा। इसी के साथ शुरू हुआ सदी का 25 वर्ष लंबा शीत युद्ध, आणविक हथियारों की अंधी रेस और दुनिया को अपने ब्लॉक में शामिल करने की होड़।
इस युद्ध में पारंपरिक अस्त्र शस्त्रों के अलावा मनोवैज्ञानिक दबाव और अपार धनशक्ति का भी खुलकर इस्तेमाल किया गया। इसी के समांतर पं. नेहरू, मिस्र के राष्ट्रपति अब्दुल नासेर, यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति मार्शल टीटो ने 1961 में गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नींव रखी। जल्दी ही इंडोनेशिया के राष्ट्रप्रमुख डॉ. सुकर्णों और घाना के राष्ट्रपति क्वामे एंक्रूमा भी नेतृत्व मंडल में शामिल हो गए।
आण्विक अस्त्रों से लैस दो महाशक्तियों की होड़ के बरअक्स यह निरपेक्ष रहकर शांति, सहयोग और मित्रता को कायम रखने का आंदोलन था। तेजी से दो खेमों में बंटती दुनिया और हथियारों की रेस के बीच इस आंदोलन का साफ़ उद्देश्य था–निरस्त्रीकरण और विश्वशांति के लिए संघर्ष। देखते ही देखते तकरीबन 120 देश इस आंदोलन से जुड़ गए। इन मुल्कों में 80 फ़ीसदी से ज़्यादा देश तीसरी दुनिया के अविकसित देश थे और बाक़ी विकसित होने की जद्दोजहद में लगे विकासशील देश।
पिछले सदी के उत्तराद्र्ध का यह महत्वपूर्ण और प्रभावी आंदोलन था, जिसने महाशक्तियों के अहम और टकराव के बीच विश्वशांति और निरस्त्रीकरण के लिए एक संतुलित प्रतिरोध का विचार दिया। ख़ैर, यहाँ बात वारसा संधि की हो रही थी। इस संधि में सोवियत संघ का घनिष्ठ साम्यवादी मित्र पोलैंड एक अग्रणी देश था। उस वक़्त यह कल्पना करना भी असंभव लगता था कि पोलैंड कभी रूस को मिटाने की कामना करनेवाला उसका प्रबल शत्रु भी हो सकता है। किंतु आज ऐसा हो चुका है।
सोवियत संघ के विघटन के बाद 1991 में वारसा संधि टूट गई और इस संधि में शामिल तकऱीबन सभी देश कालांतर में साम्यवादी समाजवादी व्यवस्था को तिलांजलि देकर नाटो में शामिल होते चले गए। पोलैंड अब नाटो का अग्रणी देश है। पोलैंड यूक्रेन का पड़ोसी है और उसकी सीमा बेलारूस से भी जुड़ती है। बेलारूस की सरकार रूस की समर्थक है और वहाँ रूसी आर्मी हर वक़्त तैनात रहती है, इसलिए रूस यूक्रेन युद्ध के बरअक्स रणनीतिक दृष्टि से पोलैंड नाटो के लिए काफी अहम साझेदार है।
पिछले हफ़्ते अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन वारसा में थे। रूस यूक्रेन युद्ध की पहली बरसी से दो दिन पहले की इस यात्रा के ख़ास मायने थे। व्हाइट हाउस ने ख़ास मक़सद से इस प्रवास को आकार दिया था। दरअसल ठीक उसी दिन रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन युद्ध के संदर्भ को लेकर क्रेमलिन में रूसी जनता को संबोधित करने वाले थे।
बाइडेन का मक़सद साफ़ था। वे रूस के ठीक पड़ोस में पुतिन को जवाब देना चाहते थे। वारसा से वे अकस्मात ही कीव चले गए। वहाँ ज़ाहिर तौर पर उन्होंने जेलेन्स्की और यूक्रेनी जनता की हौसला अफजाई करते हुए संदेश दिया कि अमेरिका और नाटो पूरी तरह यूक्रेन के साथ खड़े हैं। इधर क्रेमलिन में पुतिन ने युद्ध के लिए सीधे-सीधे नाटो और पश्चिमी देशों को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि वे सब मिलकर यूक्रेन को रूस की छाती पर बैठाना चाहते थे, अत: हमें विवश होकर युद्ध में उतरना पड़ा। पुतिन के तेवर काफी कड़े थे और वे किसी भी तरह युद्ध ख़त्म करने के मूड में दिखाई नहीं पड़ रहे थे।
जवाब में बाइडेन के तेवर भी कम नहीं थे। उन्होंने और पोलैंड के राष्ट्रपति एल्ड्रेज डूडा ने ने कड़े लफ्ज़़ों में कहा कि स्थायी शांति के लिए इस युद्ध में रूस को हराना जरूरी है। बाइडेन ने यूक्रेन को और ज़्यादा घातक हथियार देने और रूस पर और बड़े प्रतिबंध लगाने की बात दुहराई और वहाँ से विदा हो गए।
कुल मिलाकर विश्व बिरादरी के दो सर्वोच्च लीडर, जिन पर विश्वशांति की अपेक्षा रखनी चाहिए, बातचीत और समझौते के रास्ते पर चलने के लिए कतई तैयार नहीं हैं। यह युद्ध पूरी तरह से महाशक्तियों की जि़द और अहम की लड़ाई बनकर रह गया है और इसने युद्धरहित दुनिया स्थापित करने के सपनों को पूरी तरह तोड़कर रख दिया है। पश्चिम का मोहरा बने जेलेन्स्की नाटो में शामिल होने की जि़द पकड़कर यूक्रेन को तबाह कर ही रहे हैं, अमेरिका और नाटो भी यूक्रेन की आड़ में रूस को तबाह करने पर आमादा हैं।
युद्ध की बरसी के बाद अब महाशक्तियां नए सिरे से एक-दूसरे के ख़िलाफ़ लामबंद हो रही हैं। भले ही हम इस वास्तविकता को नकारते रहें, पर अब साफ़ नजऱ आ रहा है कि दुनिया दो हिस्सों में बंट चुकी है और एक नए शीतयुद्ध की शुरुआत हो चुकी है। बाइडेन के दौरे के बाद चीन के विदेशमंत्री वांग यी मास्को के प्रवास पर आए और उन्होंने रूसी विदेशमंत्री से मुलाकात करके यह जताया कि अपरोक्ष रूप से चीन इस लड़ाई में रूस के साथ खड़ा है।
फि़लहाल अमेरिका और नाटो के दबाव में रूस को एफएटीएफ से बाहर कर दिया गया है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भी रूस के ख़िलाफ़ प्रस्ताव बड़े बहुमत से पास किया गया है। यूएन के महासचिव गुटेरेस घानी ने रूस से युद्ध रोकने की अपील की है। मगर इन बातों से रूस पर कोई असर पड़ेगा, ऐसा नजऱ नहीं आता। बहुत से देश मानते हैं कि भारत में युद्ध रुकवाने और समझौता कराने की क्षमता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत ने निरपेक्ष रुख अख्तियार करके वैश्विक बिरादरी में काफी सम्मान हासिल किया है। पर भारत की भी कुछ सीमितताएँ हैं। यदि पश्चिम और नाटो आग में घी डालतें रहेंगे तो भारत की कोशिशों का क्या मतलब रह जाएगा।