पूरी दुनिया (all world) इन दिनों वैश्विक महामारी कोरोना (Global epidemic corona) के चपेट में है भारत (india) भी इस विभीषिका से अछूता नहीं है। इस संक्रामक कोविड – 19 (corona virus) वायरस ने दुनिया भर के हजारों लोगों की जान ले ली है तो लाखों लोग इस संक्रमण का शिकार हैं। कोरोना महामारी ने पूरी दुनिया की रफ्तार को थमने के लिए मजबूर कर दिया है तथा इसके संक्रमण के रोकथाम के लिए जारी लाॅकडाउन के कारण लोग अपने घरों में कैद के लिए मजबूर हैं।
इस महामारी ने धर्म और विज्ञान को भी अपने सामने बेबस कर दिया है। दुनिया के सभी धर्मों के प्रमुख धार्मिक स्थल जहां अनुयायियों के लिए बंद हैं वहीं चिकित्सा विज्ञान अब तक कोरोना के चुनौती पर विजय हासिल नहीं कर पाया है। गौरतलब है कि इस महामारी के रोकथाम के लिए जारी लाॅकडाउन से भले ही पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था चौपट हो गई और जनजीवन बुरी तरह से प्रभावित हुयी हो लेकिन भारत प्रदूषण की त्रासदी से मुक्त हो रहा है।
देश की अधिकांश नदियां साफ हुयी है, हिमालय जालंधर से दिखने लगी है, हरिद्वार में गंगा का पानी पीने लायक हो गया है। पर्यावरण के आंकड़ों के मुताबिक उत्तर भारत में लगभग पिछले 20 सालों के बाद वायु प्रदूषण अपने सबसे न्यूनतम स्तर पर आया है। इन दावों की पुष्टि नासा की अर्थ आब्जरवेटरी द्वारा जारी पिछले चार सालों के उन तस्वीरों से होती है जिसमें देश के प्रदूषण स्तर को बताया गया है।
दरअसल लाॅकडाउन के वाहनों की आवाजाही लगभग बंद है, फैक्ट्रियों के चिमनियों ने घातक धुंआ उगलना बंद कर दिया है और नदियों में इन कारखानों से निकलने वाली रासायनिक अपशिष्ट का मिलना भी बंद है। परिणामस्वरूप देश में लोग साफ हवा में साँस ले रहे हैं और हवा में एयरोसोल की मात्रा बेहद कम हुयी है। हालांकि उत्तर भारत के इन तस्वीरों के विपरीत दक्षिण भारत के हवा में बीते चार सालों की तुलना में एयरोसोल के स्तर में बढ़ोतरी हुई है।
पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार इसका कारण दक्षिण भारतीय राज्यों में हालिया मौसम का बदलाव, खेतों में लगाई गई आग और दूसरे कारक हो सकते हैं। बहरहाल इन तथ्यों से यह कहा जा सकता है कि कोरोना वायरस की त्रासदी के कारण जहाँ पूरी दुनिया भयावह त्रासदी के दौर से गुजर रहा है वहीं प्रकृति मुस्कुरा रही है।ज्ञातव्य है कि हवा में जहाँ प्रदूषण का स्तर कम हुआ है वहीं ओजोन के स्तर में सुधार के संकेत मिल रहे हैं।
देश की सर्वाधिक प्रदूषित गंगा और यमुना सहित अन्य नदियों में प्रदूषण का स्तर काफी कम हुआ है। जिस गंगा और यमुना के प्रदूषण को खत्म करने के लिए सरकारों द्वारा अरबों रुपये खर्च करने बाद आशातीत परिणाम नहीं निकले उन नदियों की सूरत और सेहत कोरोना लाॅकडाउन ने महज इक्कीस दिनों में बदल कर रख दिया। इसी प्रकार देश और दुनिया के कई शहरों में जंगली जानवरों के उन्मुक्त विचरण करने, समुद्रों में डाल्फिन के अठखेलियाँ करने, तट पर समुद्री कछुओं के चहलकदमी की खबरें आ रही है।
वायु प्रदूषण की कमी के कारण पेड़ – पौधों में अजीब सी ताजगी महसूस हो रही है वहीं जंगल से लेकर शहरों में कीट-पतंगे और रंगबिरंगी तितलियाँ उन्मुक्त उड़ान भर रही हैं, गौरैया से लेकर कोयल इन दिनों पेड़ों और मुंडेर में खूब फूदक रहे हैं। देश और दुनिया के वैज्ञानिकों के अनुसार द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद 75 सालों के बाद दुनिया की हवा सबसे ज्यादा साफ हुई है और कार्बन उत्सर्जन कम हुआ है। लाॅकडाउन के इस दौर में प्रकृति और पशु-पक्षियों के स्वभाव में आए बदलाव के बीच यह भी प्रश्न लाजिमी है कि क्या ‘कोरोना’ प्रकृति का मनुष्य से बदला है? बेशक इसका उत्तर हाँ हो सकता है।
इतिहास गवाह है कि मानव सभ्यता अपने पाषाण सभ्यता के दौर से ही अपने आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति पर निर्भर रहा है। जब तक म प्रकृति का मनुष्य के साथ संतुलन रहा तब उसने उसका पोषण किया। मानव मशीनरी ने जब विकास के लिए जंगलों को काटना और पहाड़ों को खोदना शुरू किया तब से ही प्रकृति और मनुष्य का द्वंद चालू हो गया। गौरतलब है कि कि शुरूआत में विकास का सपना बहुत लुभावना होता है लेकिन विनाश के दांव पर विकास का फैसला हमेशा त्रासदीदायक ही होता है और इस त्रासदी को मानव समाज ने अनेक प्राकृतिक आपदाओं के रूप में भोगा है।
मनुष्य और पशु-पक्षियों का सहचर रिश्ता रहा है लेकिन जब मनुष्य अपने नैसर्गिक शाकाहारी प्रवृत्ति को त्याग कर इन प्राणियों का भक्षण करने लगा तो इसका परिणाम अनेक महामारियों के रूप में सामने आया है। वर्तमान दौर में भोजन, दवाओं और अन्य जरूरतों के लिए जानवर, पक्षियों और मछलियों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने लगा है। प्राणीविदों और रोग विशेषज्ञों के अनुसार प्रकृति के विनाश, मौसम परिवर्तन, जानवरों और पक्षियों ने मनुष्यों के बीच उन बीमारियों को फैलाने में अहम भूमिका निभाई है जो प्रकृति के गोद में व इन पशु – पक्षियों में छिपी हुई थी। कोरोना से लेकर स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू, सार्स, मर्स, एड्स जैसी अनेक संक्रामक बीमारियों का स्त्रोत जानवर और पक्षी हैं।
दरअसल जंगली जानवर और पक्षी अनजाने वायरस और बैक्टीरिया के भंडार हैं। गौरतलब है कि कि कोरोना सहित अन्य संक्रामक बीमारियों की शुरुआत चीन से ही मानी जाती है। चीन में अनेक प्रकार के विषैली सांपो, जानवर और पक्षियों का बहुत बड़ा बाजार है। अब तक की जानकारी के अनुसार कोरोना का संक्रमण भी चीन के जानवरों व सी-फूड के बाजार से फैला। कोरोना वायरस के लिए एक जंगली चमगादड़ और पेंगोलिन को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है जिनमें इस वायरस को अपने में रखने की प्रवृत्ति होती है।
गौरतलब है कि कोविड – 19 जैसे कोरोना वायरस भले ही मनुष्यों से मनुष्यों में फैलते है लेकिन ये वायरस कभी खत्म नहीं होते हैं क्योंकि कुछ जानवर और जंगली चिड़िया इस वायरस के आश्रय हैं। जैसे – जैसे मानव सभ्यता इन पशु-पक्षियों के रहने के प्राकृतिक जगहों को खत्म करते जाएगी वैसे – वैसे जानवरों में आश्रित जानलेवा बीमारी मनुष्य के समीप पहुंच कर लोगों का जान लेती रहेंगी । बेतरतीब शहरीकरण,जनसांख्यकीय दबाव, गरीबी, अशिक्षा, बढ़ते प्रदूषण,मांसाहार की बढ़ती प्रवृत्ति, घटते जंगल. जंगलों में आग और सूखती नदियों ने प्रकृति के परिस्थिकीय तंत्र और जलवायु पर काफी बुरा प्रभाव डाला है फलस्वरूप कोरोना जैसे अनेक जानलेवा संक्रामक रोगों का प्रसार काफी तेजी से हो रहा है।
यदि मानव समाज ने सबक नहीं लिया तो कोरोना कोई अंतिम आपदा नहीं है बल्कि हम आगे भी ऐसी बीमारियों से जूझते रहेंगे। इसलिए अभी भी वक्त है मानव समाज प्रकृति और पशु-पक्षियों पर निर्ममता छोड़ कर इसे विमर्श में लाऐ अन्यथा प्रकृति लगातार बदला लेते रहेगी।
(लेखक शासकीय आयुर्वेद कालेज रायपुर में सहायक प्राध्यापक हैं।) 94252 13277