Agricultural Law : केंद्र सरकार के तीन नए कृषि कानूनों के विरोध में शुरू हुआ किसान आंदोलन खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। संसद का मानसून सत्र चल रहा है। ऐसे में एक बार फिर से किसान आंदोलन तेज होता दिख रहा है। दिल्ली बार्डर के साथ ही साथ किसान अब दिल्ली में जंतर-मंतर में प्रदर्शन कर रहे हैं। चालू सत्र में किसान आंदोलन की गूंज सड़क से सदन तक सुनाई दे रही है। किसान आंदोलन को करीब 8 माह गुजर चुके हैं। भारत सरकार के साथ किसान प्रतिनिधियों की 11 दौर की बातचीत भी हो चुकी है। एक बार केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह भी किसानों से संवाद कर चुके हैं। बावजूद इसके आंदोलन से कोई राह निकलती दिखाई नहीं दे रही।
किसान कृषि कानूनों (Agricultural Law) को रद्द करवाने की मांग पर अड़े हैं तो वहीं सरकार जरूरी परिवर्तन और संशोधन करने की बात कर रही है। सरकार और किसानों के बीच चल रहे गतिरोध के कारण मामला सुलझने की बजाय लंबा ख्ंिाचता जा रहा है। दिल्ली के उप-राज्यपाल अनिल बैजल ने अधिकतम 200 किसानों को नौ अगस्त तक जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करने की अनुमति दी है। 26 जनवरी को दिल्ली में उग्र प्रदर्शन के बावजूद दिल्ली सरकार ने किसानों को एंट्री की इजाजत दी है। यह परमिशन 22 जुलाई से लेकर 9 अगस्त तक है।
दिल्ली डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी ने शर्तों के साथ प्रदर्शन की मंजूरी दी है। संसद में मानसून सत्र के बीच केंद्र के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ जंतर-मंतर पर गुरुवार को किसानों ने प्रदर्शन किया। पुलिस ने इसे देखते हुए मध्य दिल्ली के चारों ओर कड़ी सुरक्षा व्यवस्था रखी। वाहनों की आवजाही पर कड़ी नजर रखी गई। किसान नेता राकेश टिकैत ने जंतर मंतर पर कहा कि आज आठ महीने बाद सरकार ने हमें किसान माना है।
किसान खेती करना भी जानता है और संसद चलाना भी जानता है। संसद में किसानों की आवाज दबाई जा रही है। जो सांसद किसानों की आवाज (Agricultural Law) नहीं उठाएगा हम उसका विरोध करेंगे। किसान संसद की शुरूआत में पहले तो आंदोलन के दौरान शहीद हुए किसानों को श्रद्धांजलि दी गई, उसके बाद किसानों नेताओं पर जो मुकदमे दायर किये गए हैं उन्हें वापस लेने की मांग उठी। फिलहाल इसी पर सभी किसान चर्चा कर रहे हैं।
जानकारों की माने तो सरकार आंदोलन को लेकर बेपरवाह और निश्चिंत है, क्योंकि उसका भीतरी आकलन है कि आंदोलन बिखर कर नाकाम हो चुका है। इधर-उधर विरोध-प्रदर्शन कर अराजकता और भाजपा-विरोधी राजनीति के अलावा, किसान आंदोलनकारियों के पास कोई ठोस मुद्दा शेष नहीं है। सरकार कई बार स्पष्ट कर चुकी है कि कृषि के तीनों विवादास्पद कानून न तो वापस लिए जाएंगे और न ही रद्द किए जाएंगे। खरीफ की फसलों के लिए भारत सरकार के कृषि मूल्य आयोग ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में बढ़ोतरी की है। यह भी किसानों की अपेक्षाओं से कमतर हो सकती है।
उप्र में ही गन्ना मिलों को किसानों के 8000 करोड़ रुपए से भी अधिक का भुगतान चुकाना है। प्रधानमंत्री मोदी के सार्वजनिक आश्वासन के बावजूद किसानों को उनकी उपज का पैसा नहीं मिला है और न ही 15 दिन बीत जाने के बाद भुगतान पर ब्याज की व्यवस्था लागू की गई है। हालांकि यह किसान आंदोलन का बुनियादी मुद्दा नहीं है। अब नई रणनीति के मुताबिक, किसान संसद भवन का घेराव करना चाहते हैं। मानसून सत्र 19 जुलाई से शुरू हो चुका है। किसानों की रणनीति है कि हररोज 200 आंदोलनकारी दिल्ली के सिंघु बॉर्डर से मार्च करके संसद भवन तक पहुंचेंगे और बाहर धरना देंगे।
फिलहाल संयुक्त किसान मोर्चा और पुलिस अधिकारियों के बीच संवाद जारी है। यदि पुलिस बहुत ज्यादा विनम्र हुई, तो जंतर-मंतर पर किसानों को धरना-प्रदर्शन की मंजूरी दी जा सकती है। उसकी भी समय-सीमा और शर्तें तय की जा सकती हैं, लेकिन किसानों को संसद का घेराव करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, क्योंकि यह सुरक्षा और संप्रभुता का सवाल है। यदि आंदोलनकारी किसान किसी भी तरह संसद परिसर में घुसने में कामयाब हुए, तो उसे ‘संसद पर आक्रमण’ माना जाएगा।
संसद देश की संप्रभुता की ही प्रतीक है। विपक्षी खेमे से कांग्रेस, अकाली दल और आप आदि ने किसान आंदोलन के मुद्दे पर संसद में ‘कामरोको प्रस्ताव’ के नोटिस दिए हैं। चूंकि पंजाब में विधानसभा चुनाव फरवरी, 2022 से पहले होने हैं, लिहाजा यह मुद्दा वहां की राजनीति के लिए बेहद संवेदनशील है। अकाली दल को बसपा और सीपीएम ने ‘कामरोको प्रस्ताव’ पर समर्थन की घोषणा की है। लोकसभा में यह स्पीकर का विशेषाधिकार है कि वह ऐसे प्रस्ताव को स्वीकार करें अथवा नहीं। अलबत्ता वह किसी और नियम के तहत किसान आंदोलन पर चर्चा करवा सकते हैं। संयुक्त किसान मोर्चा ने विपक्ष के सांसदों के लिए ‘पीपल्स व्हिप’ जारी की है, जिसके तहत सांसदों को सदन से वॉकआउट न करने का आग्रह किया गया है। ऐसी ‘व्हिप’ की कोई भी संसदीय वैधता नहीं है।
किसान नेताओं (Agricultural Law) का अहंकार संतुष्ट हो सकता है। किसान आंदोलन के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय ने तीन सदस्यों की जो समिति गठित की थी, उसने बंद लिफाफे में क्या अनुशंसाएं की हैं, उन्हें भी सार्वजनिक नहीं किया गया है और न ही केंद्र सरकार पर कोई दबाव है। अतीत पर नजर डालें तो इस देश में ज्यादातर बड़े और निर्णायक किसान आंदोलन आजादी के पहले ही हुए हैं। आजादी के बाद दो ऐसे बड़े किसान आंदोलन हुए हैं, जिन्होंने देश की राजनीतिक धारा को प्रभावित करने का काम किया। ये दोनो आंदोलन भी वामपंथियों ने ही खड़े किए थे। पहला था आजादी के तुरंत बाद 1947 से 1951 तक तेलंगाना ( पूर्व की हैदराबाद रियासत) में सांमती अर्थव्यवस्था के खिलाफ आंदोलन। इसमें छोटे किसानों ने ब्राह्मण जमींदारों खिलाफ गुरिल्ला युद्ध छेड़ दिया था। लेकिन इसका असल फायदा रेड्डी और कम्मा जैसी सम्पन्न लेकिन पिछड़ी जातियों को हुआ।
वो आज सत्ता की धुरी हैं। इसके बाद दूसरा बड़ा किसान आंदोलन 1967 में पश्चिम बंगाल में नक्सली आंदोलन के रूप में हुआ। इसमें किसानो की मुख्य मांग बड़े काश्तकारों को खत्म करना, बेनामी जमीनों के समुचित वितरण और साहूकारों द्वारा किया जाने वाला शोषण रोकने की थी।
किसान सिंघु बॉर्डर, गाजीपुर बॉर्डर, टीकरी बॉर्डर पर धरना देते रहें या जंतर-मंतर पर प्रतीकात्मक विरोध-प्रदर्शन करें, इससे समाधान तक नहीं पहुंचा जा सकता।
संसद में किसान आंदोलन (Agricultural Law) के अलावा, कोरोना वायरस की दूसरी लहर, महंगाई, बेरोजगारी, फोन टैपिंग के जरिए मंत्रियों, पत्रकारों और वकीलों की जासूसी, टीकाकरण नीति आदि भी महत्त्वपूर्ण मुद्दे हैं। सरकार को 23 विधेयक भी पारित कराने हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने तीखे और धारदार सवाल पूछने के साथ-साथ सार्थक बहस की भी उम्मीद जताई है, लेकिन पहले दिन ही उनके संबोधन के दौरान लोकसभा में जबरदस्त हंगामा मचता रहा। बहरहाल संसद को सिर्फ किसान आंदोलन तक समेट कर नहीं रखा जा सकता।
(लेखक राज्य मुख्यालय लखनऊ, उत्तर प्रदेश में मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं।)