योगेश मिश्रा
Winter session of Parliament: सभी लोग कोई न कोई काम करते हैं। सबका काम तय भी है। किन्हीं ने खुद अपने काम तय कर रखे हैं तो किन्हीं को उनके मालिकान ने काम तय करवा दिए हैं। मालिकान तो सरकार भी है और दुकान का सेठ भी। जो नौकर है उस का भी काम तय है और मालिक का भी तय है। लेकिन दिक्कत काम की नहीं बल्कि काम न करने की है। काम तय है, भूमिका तय है । लेकिन उसे निभाया नहीं जा रहा, मानों फिल्म में जिसकी भूमिका हंसाने की है, वह रुलाये ही चला जा रहा। यही समस्या की बहुत गहरी और लम्बी जड़ है। कम से कम हमारे देश में तो यही नजर आ रहा।
अब देखिये संसद में दो युवक मेहमान बन कर आये। लेकिन साथ में कुछ अफरातफरी मचाने वाला सामान भी छिपा कर लेते चले आये। जिनके जिम्मे जाँच-पड़ताल, झाड़ा-तलाशी का काम था वो पता नहीं किस चीज में मशगूल थे कि अफरातफरी का सामान लोकसभा के भीतर पहुँच गया। सुरक्षा के जिम्मेदार अपना काम कितनी शिद्दत से करते हैं यह खुलासा हो गया। यह भी साफ़ हो गया कि जिन सांसद महोदय के सिफारिश पर दोनों युवकों का एंट्री पास बना था उन एमपी महोदय ने पड़ताल करने की अपनी जिम्मेदारी कितनी गंभीरता से निभाई।
दरअसल, ये सिर्फ कोई पहला, अनोखा या अंतिम वाकया नहीं है। हर आदमी द्वारा अपना नियत काम या ड्यूटी छोड़ कर कुछ और ही करने लगना, या कुछ भी न करने का यह एक ढर्रा है, जो आज से नहीं बल्कि जमाने से ऐसा ही है। इसी ढर्रे का नतीजा बालासोर ट्रेन हादसा था। जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए थे। उस समय जिन रेलवे कर्मचारियों की जो नियत ड्यूटी थी, उसे ही फॉलो नहीं किया गया था।
अपना काम न करने का ढर्रा आप अकसर चौक चौराहों पर देखते होंगे जहाँ ट्रैफिक को कंट्रोल करने वाले सिपाही अपना छोड़ कर मोबाइल पर रील्स देखने, सुस्ताने या दुनिया को आते-जाते देखने में मशगूल दिखाई देते हैं। यही हाल उन तमाम अस्पतालों का है जहाँ डाक्टर मरीजों की तीमारदारी करने, उनके इलाज में तत्पर रहने की बजाये हर अन्य काम में लगे दीखते हैं। उन टीचरों को देखिये जिनको पढ़ाने के काम पर रखा जाता है । लेकिन वो पढऩे- पढ़ाने के बजाये पॉलिटिक्स में ही यूं समय बिताते हैं, मानों पढ़ाना बहुत दोयम दर्जे का काम है। स्कूलों में तो टीचरों को पढ़ाने के अलावे वोटर लिस्ट, सर्वे और न जाने क्या क्या काम सौंप दिए आते हैं।
यहाँ अपना काम गौण हो कर रह जाता है। जब पढ़ाने वाले ऐसे हैं तो पढऩे वाले भला क्यों पीछे रहें? स्टूडेंट्स का काम सीखना है । लेकिन यहाँ सीखने की बजाये स्टूडेंट्स किसी तरह डिग्री-डिप्लोमा लेने के काम में लगे रहते हैं। इनके लिए सीखना कतई जरूरी नहीं, काम मिलना चाहिए वह भी सीखे बगैर। विडंबना ही कहेंगे।
आप हर तरफ नजर घुमा कर देखिये यही समां नजर आयेगा। रक्षा और सुरक्षा छोड़ पुलिसवाले कुछ और ही काम करते हैं। ट्रेनों में सवारियों की सुरक्षा का काम जिनके जिम्मे है वो सीटें बेचने और पैसे वसूलने के काम पर फोकस्ड रहते हैं। वकील न्याय दिलाने की बजाये न्याय को जितना लंबा हो सके उतना लटकाने में लगे रहते हैं। जस्टिस सिस्टम पर कुछ कहना खतरे से कम नहीं, लेकिन आप खुद ही जानते होंगे कि वहां कौन कितना अपना काम करता है।
जब दरिया उधर ही बह रहा है तो जनप्रतिनिधि और माननीय भी जनता की सेवा छोड़ कर अपनी सेवा में पूर्ण समर्पित रहते हैं । जन प्रतिनिधि ब्यूरोक्रेट का काम करना चाहता है। ब्यूरोक्रेसी नेतागीरी में जुटा दिखता है। नेता वोट माँगने की जगह वोट खऱीदता दिखता है। नतीजन चुनावों में नोटों की नदियाँ बहती दिखती हैं। चुनावों को सौ फीसदी असली चुनाव की तरह संपन्न कराने के लिए जिम्मेदार चुनाव आयोग भी कितना अपना काम करता है ये भी किसी से छिपा नहीं।
सब कुछ अलग तरह का बन गया है। ड्यूटी और नियत निर्धारित काम हमारे लिए बस कहने भर को या कागजों तक सीमित हो कर रह गए हैं। एक सिक्यूरिटी गार्ड जिसका काम रात भर जाग कर पहरा देना है वह भी आधे से ज्यादा ड्यटी सोता रहता है। आपके घर पर काम करने वाला हेल्पर बर्तन भी ऐसा धोता है कि साबुन लगा रह जाए। टेलर से लोगों ने कपड़े इसीलिए सिलवाने छोड़ दिए कि टेलर मास्टर नाप मुस्तैद रखते ही नहीं थे, कभी छोटा तो कभी बड़ा। राजमिस्त्री हो या कारपेंटर अपना काम उस तरह करेंगे ही नहीं जैसा होना चाहिए।इसलिए मशीनों के फर्ऩीचर यानी रेडीमेड फर्ऩीचरों ने जगह ले ली।
लेकिन क्या पूरी दुनिया में ऐसा ही है? कतई नहीं। ये कुछ हमारे जैसे विकासशील और अविकसित देशों का ही मर्ज है। हम काम की न तो इज्जत करते हैं न उसके प्रति समर्पित हैं। ये हमने पेट से नहीं सीखा, ये हमने अपने परिवेश अपने अग्रणियों और अपने तथाकथित लीडरों से सीखा है। जब यही रवायत ही यही है तो कोई कैसे बदलेगा। हम अपना काम ईमानदारी से नहीं करते, डंडी जरूर मारते हैं।
शायद हमसे यही करवाया भी जाता है। तभी तो सरकारी अधिकारी, जज वगैरह जल्दी से रिटायरमेंट लेकर किसी राजनीतिक दल, कंपनी या सरकार के ही नौकर बन जाते हैं। इसके लिए वे नौकरी करते समय सरकार के नही, जहां जाना होता है, उसके लिए ही काम शुरू कर देते हैं। सब लोग पगार कहीं से काम कहीं और के लिए करते मिलते हैं।
काश एक दिन ऐसा आये कि सब अपना अपना काम पूरे समर्पण से करने लगें। सड़क पर झाडू भी कोई लगाये तो इस तरह कि उससे बढिय़ा कोई न लगा सकता हो। यही एक उपाय है। भले ही जो करो, अपना काम करना और पूरी ईमानदारी से करना, आप भी अपने घर में यही चाहते हैं। काम की तारीफ़ की जानी चाहिए । काम को पूजा मानने के पश्चिम के चलन को इसमें उपयोग करना चाहिए । इसके बारे में सोचिये और ध्यान दीजियेगा।