कांग्रेस की इक्कीसवीं सदी (3) : कनक तिवारी

कांग्रेस की इक्कीसवीं सदी (3) : कनक तिवारी


इंदिरा गांधी ने अभिमन्यु शैली में जब चक्रव्यूह में फंसने के बाद सिंडिकेट के कौरवों को ललकारा था, तब वृद्ध इतिहास की घिग्गी बंध गई थी। राजीव गांधी ने सत्ता में रहकर (और उसके बाद भी) कांग्रेसजनों को जिस कदर अभिभूत किया था। आज भी पर्यवेक्षक यही बताने में मशगूल हैं कि कांग्रेस का अंदरूनी संकट फोड़े की तरह फूट रहा हो तो उस पर सोनिया गांधी के हाथ ही मरहम लगा सकते हैं। इटली से भारत आई नेहरू परिवार की बहू की विश्वसनीयता और स्वीकार्यता इस कदर है कि अच्छे से अच्छे अखाड़ची कांग्रेसी को विनय की मुद्रा में उनसे मिलने अपने राजनीतिक वजूद को बचाए रखने के लिए जाना पड़ता है। कांग्रेेस का यह कैसा तत्व है जो नेहरू परिवार को कांग्रेस का कुतुबनुमा बनाये हुए है? 10 जनपथ की सुई जिस ओर सुस्थिर होगी, उत्तर वही होगा।
इंदिरा गांधी की मौत का कांग्रेस उम्मीदवारों को फायदा मिला। वह एक तरह से मां की वसीयत थी, जो एक-एक बेटे की राजनीतिक तिजोरी भर गई। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के चुनाव पतनों की गहराइयों में ग्रीक त्रासदियों की महानता के बीजाणु नहीं छिपे थे लेकिन शाही व्यक्तियों के पतन में भी कविता अभिव्यक्त होने का माध्यम ढूंढ़ती है। उनमें कालजयी होने के जो तत्व छुपे होते हैं वे विपरीत स्थितियों को अनुकूल बनाकर इतिहास रचते हैं। नेहरू खानदान के वशीकरण मोह से दीप्त कांग्रेस जब उनके नेतृत्व में अनथक लड़ाई लडऩे को आगे बढ़ती थी तो उसका इतिहास उसे रद्द नहीं करता था। यदि इन दुर्घटनाओं से कांग्रेसी नेतृत्व सबक सीख ले तो किसी अगले चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ किए गए नकारात्मक वोट उसकी झोली में लौट भी सकते हैं। देश आतंकवादी पार्टियों, धर्मान्ध कठमुल्लाओं और संकीर्ण सम्प्रदायवादियों की बलि नहीं चढऩा चाहता।
स्वतंत्रता संग्राम में भी त्वरित विजय कांग्रेस का नसीब या संकल्प नहीं था। विरोधियों की वैचारिक हत्या करना कांग्रेस का उद्देश्य नहीं रहा है लेकिन आत्महत्या करना भी तो उसका पाथेय नहीं है। ब्रिटिश सभ्यता के सर्वोच्च हथकण्डों से आज़ादी के महासमर में जब कांग्रेस ने निर्णायक कूटनीतिक युद्ध किया तब लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, गोखले, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद, सुभाष बोस आदि ने प्रचलित मुहावरे के अर्थ में उस लंगड़े की भूमिका अदा की थी, जिसकी दृष्टि पुष्ट और साफ थी परन्तु जो जनता के कंधों पर बैठकर ही उसका नेतृत्व कर सकता था क्योंकि जनता के पैरों में इतिहास बनकर चलने की कूबत तो थी लेकिन राजनीतिक शिक्षा के अभाव में दृष्टिन्यूनता थी। आज़ादी के महासमर में कूटनीतिक बुद्धि यूनियन जैक को उतारकर तिरंगा झण्डा लहरा सकती है। इस पार्टी के पास सैकड़ों वर्षों के सोच का अक्स उसके संविधान तथा अध्यक्षीय भाषणों में गूंजता है। कांग्रेस इस देश में सर्वोच्च ज्ञान का बहता, चलता फिरता पुस्तकालय रही है। कांग्रेस नहर नहीं रही। वह भारत के अतीत से भविष्य तक बहने वाली नदी की तरह एक ऐतिहासिक प्रक्रिया रही है। एक अर्थ में बीसवीं सदी के पहले पांच दशकों के भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन की वह प्रक्रिया है तो दूसरे अर्थ में इस सदी के उत्तराद्र्ध में घटित भारतीय जीवन के एक-एक हादसे का चटखा हुआ भले हो, आईना तो वह है ही। इस पार्टी के ज़ेहन में संघर्ष और निर्माण के वे बीजाणु छिपे रहे हैं जो भारत को भूगोल नहीं, देश बनाकर रखने की ताब रखते थे।
कांग्रेस भारतीय राजनीति में क्यों अप्रासंगिक कही जा रही है? यह इस सदी का सवाल है। चुनावों के लगातार त्रिषंकु परिणाम कांग्रेस के लिए एक और चेतावनी हैं। महात्मा गांधी केवल राजनीतिक योद्धा नहीं थे बल्कि ब्रिटिश सभ्यता का उनसे प्रखर आलोचक आज तक भारत में और स्थापित बुद्धिजीवियों में भी कोई नहीं है। भाषणों के शिल्पियों ने इस देश के भविष्य की एक-एक इबारत को ताज महल के पत्थरों की तरह तराशा है। आज कांग्रेस की यात्रा का अर्ध विराम है, पूर्ण विराम नहीं। ऐसा नहीं है कि पूरा चित्र निराशामय है। कांग्रेस यदि चाहे तो असफलता के बावजूद वांछित भूमिका से लैस हो सकती है। परन्तु एक इतिहास निर्माता पार्टी की मुश्किल के दिनों में भले ही सपने देखना कोमल हो ओर उनका टूटना निर्मम-यह किसी बुद्धिजीवी को तो करना चाहिए। कांग्रेस को चोट लग जाने के कारण खेल में सम्हलकर खेलना है। सत्ता पाने के लिए कांग्रेस-संस्कृति का पौधा फिर रोपना होगा और उसकी रक्षा उन हाथों में सौंपनी होगी, जो वास्तव में संस्था के माली बनने के लायक हैं। कांग्रेस को अपनी रसोई तैयार करनी होगी, जिससे उसके कार्यकर्ताओं की पूरी टीम का पेट भरे। आज भी कांग्रेस में बड़ी संख्या में उदार, परम्परावादी, कर्मठ, प्रभावशाली और निजी हितों का त्याग करने वाले कार्यकर्ता हैं। कांग्रेस ने पहले भी निराशा को कफन की तरह नहीं ओढ़ा है। उसकी बूढ़ी हड्डियों में इतना दम बाकी है कि वह भविष्य का बोझ अपने कंधों पर उठाकर चल सके। कांग्रेस इतिहास के विचित्र विरोधाभासों और विपर्ययों का फेनोमेना रही है। इसमें एक साथ राजा और रंक, जमींदार और किसान, उद्योगपति और मजदूर, बूढ़े और जवान शामिल रहे हैं। संघर्ष उनकी पहचान और पार्टी उनकी जाति रही है। उनकी निजी जिन्दगी या व्यक्तित्व ने कांग्रेस को कभी प्रभावित नहीं किया। कांग्रेस वैचारिक संघर्ष का स्कूल रही है, गिरोहबंदी का नहीं। यह एक तरह से कांग्रेस की जागीर और चरित्र दोनों हैं। कांग्रेस के लिए यह कितना आत्मघाती है कि जिस उत्तरप्रदेश ने कांग्रेस के तेवर में संघर्ष के सबसे ज्यादा बीजाणु गूंथे, वहां उसकी हालत खराब है। जो लोग तराजू की डंडी मारते हैं, वस्तुओं में मिलावट करते हैं, गांधी के हत्यारों के राजनीतिक रिश्तेदार हैं, भ्रष्ट दलालों का सियासी इस्तेमाल करते हैं, संविधान का मज़ाक उड़ाते हैं, धर्म की राजनीतिक दुर्गति करते हैं, क्या उनसे लडऩे में भी कांग्रेस को आपस में लडऩा चाहिए?
लोकमान्य तिलक ने गणेश उत्सव की जो परिपाटी डाली उससे राष्ट्रीय आन्दोलन का ज्यादा फायदा हुआ। आजा़दी के इस अप्रत्यक्ष आन्दोलन में महिलाएं और बच्चे भी पुरुषों के मुकाबले कम नजऱ नहीं आये। वीर पूजा की भावना का पारम्परिक पर्व बंगाल में दुर्गा और काली के नामों के साथ समृद्ध हुआ। इस आयोजन में दुर्गा और काली भारत माता की चित्रित छवियों के रूप में भी जनमानस में परवान चढ़ीं। उनके द्वारा मारे गये बेचारे महिषासुर के काला होने के बाद भी दर्शकों की पीढिय़ां उसमें गोरी चमड़ी का अंग्रेज देखती रहीं। महात्मा गांधी ने अपने जीवन के सन्दर्भ में राम के नाम का सार्थक इस्तेमाल किया है। गांधी के लिये आज़ादी की लड़ाई धर्म युद्ध की समानार्थी थी। उन्होंने कभी भी तात्कालिकता को आन्दोलन का तत्व नहीं बनाया। बांग्ला महानायकों अरविन्द घोष से लेकर सुभाषचन्द्र बोस तक किसी भी नाम को दुर्गापूजा की परम्परा में सांप्रदायिकता या धार्मिक कठमुल्लापन की गंध नहीं आती थी। उत्तरप्रदेश हो या असम, आन्ध्रप्रदेश हो या केरल कांग्रेस परिवार के सदस्यों के सांस्कारिक सन्दर्भ उनकी राजनीति के आड़े नहीं आए। तीज त्यौहार वैयक्तिक या पारिवारिक घटनाक्रमों का कैलेन्डर बनने के बदले राजनीति के आंगन में इठलाते रहे। प्रभात फेरियां, सर्वधर्म प्रार्थना सभाएं, धार्मिक सांस्कारिक आयोजन, राम लीलाएं, आल्हा-ऊदल के गायन, ईद और बड़े दिन के जश्न, गुरु नानक जयन्ती आदि का भारतीय जननेताओं से गहरा सामंजस्य और रिश्ता रहा है। (क्रमश:)

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